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भरतेश वैभव
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निराबालक है छह वर्षका बालक है | इसलिए नियमपूर्ति के लिए पट्टाभिषेक कर मंत्रियोंके आधोन राज्यको बनाया व उनको योग्य मार्गदर्शन कर स्वतः निश्चित होकर दीक्षा के लिए चला गया । अनन्तवीर्य बालक था । इसलिए उसे सब व्यवस्था कर जाना पड़ा यदि वह योग्य वयस्क होता तो यह अविलम्ब चला जाता । अस्तु,
इस समाचारके सुनते ही उन सबको बहुत आश्चर्य हुआ । सबने नाक पर उँगली दबाकर "जिन ! जिन ! वे सचमुच में धन्य है ! उनका जीवन सफल है" कहने लगे ! और उन सबने उनको परोक्ष नमस्कार किया ।
उन सबमें ज्येष्ठ कुमार रविकीतिराज है । उन्होंने कहा कि बिलकुल ठीक है । बुद्धिमत्ता, विवेक व ज्ञानका फल तो मोक्षकार्य में उद्योग करना है । आत्मकार्यका साधन करना यही सम्यग्ज्ञानका प्रयोजन है ।
आत्मतत्वको पानेके लिए ज्ञानको जरूरत है । परमात्माका ज्ञान होनेपर भी उसपर श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धा व ज्ञानके होनेपर भी काम नहीं चलता । श्रद्धा व ज्ञानके होनेपर भी संयम पालनेके लिए जो लोग अपने सर्वसंगका परित्याग करते हैं वे धन्य हैं ।
मेघेश्वर ने खूब संसारसुखका अनुभव किया । राज्यभोगको भोग लिया। अनेक वैभवोंको अनुभव किया। ऐसी परिस्थिति से इसे हेय समझ कर त्याग किया तो युक्त ही हुआ । परन्तु उनके सहोदर विजय व जयंत राजने ( राज्यभोगको न भोगकर ) इस राज्यलक्ष्मीको मेघमाला समझकर परित्याग किया यह बड़ी बात है । आश्चर्य है |
अपनो यौवनावस्था व शक्तिको शरीरसुखके लिए न बिगाड़कर बहुत सन्तोष के साथ आत्मसुखके लिए प्रयत्न करनेवाले एवं इस शरीर को तपश्चर्या में उपयोग करनेवाले वे सचमुच में महाराज है। धन्य हैं ! यद्यपि हम सब चक्रवर्तीके पुत्र हैं, तथापि हम चक्रवर्ती नहीं है । परन्तु वे तोनों भाई चक्रवर्ती के लिए भी वंद्य बन गये हैं। इसलिए वे सुज्ञानचक्रवर्ती धन्य हैं । आजतक वे हमारे पिताजीके आधीन होकर उनके चरणोंमें विनय से नमस्कार करते थे और राज्य पालन करते थे। परन्तु आज हमारे पिताजी भी उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं। सचमुच में जिनदीक्षाका महत्व अवर्णनीय है ।
परब्रह्म स्वरूपको धारण करनेवाले योगियोंको हमारे पिताजी नमस्कार करें इसमें बड़ी बात क्या है ? जिस प्रकार भ्रमर जाकर