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________________ भरतेश वैभव शिला, कांसा, पीतल आदिके द्वारा जिनमुद्रको तैयार कराकर उनका समादर करना व उपासना करना उसे भेदभक्त कहते हैं । अचल होकर व्यपने आत्माको ही जिन समझना उसे अभेदभक्त कहते हैं । १०० चर्म, रक्त, मांससे युक्त अपवित्र गाय के शरीर में रहने पर भी दूध जिस प्रकार पवित्र है उसी प्रकार कर्म, कषाय व अनेक रोगादिक बाबाओंयुक्त शरीर में रहनेपर भी यह आत्मा निर्मल है, पवित्र है । अग्नि] लकड़ी में है, यदि वही अग्नि प्रज्वलित हुई तो उसी लकड़ीको जला देती है | अर्थात् हाँस विनास स्थान है उसे हो जला देती है । इसी प्रकार कठोरकर्मके बीच यह आत्मा रहता है । परन्तु ध्यान करने पर वह आत्मा उन कर्मोंको ही जला देता है । दशवायुओंको वशमें कर, प्राभृतशास्त्रोंके रहस्यको समझकर आँखों को मोचकर त्रिशरीरको अपनेसे भिन्न समझकर अन्दर देखें तो आत्मा सहज ही दीखने लगता है । विशेष क्या कहें ? प्राणवायुको मस्तकपर चढ़ाकर वहाँपर स्थित करें तो अन्दरका अन्धकार एकदम दूर होकर शुभ चांदनीकी पुतली के समान आरमा दीखता है । , कोई कोई पवनाभ्यास (प्राणायाम) के बिना ही ध्यानको हस्तगत कर लेते हैं । और कोई-कोई उस वायुको अपने वश में कर आत्मध्यान करते हैं। अब इस ध्यानकी सिद्धि होती है तो तेजसकार्माणशरीर झरने लगते हैं और चर्मका यह शरीर भी नष्ट होने लगता है । तदनन्तर यह निर्मलात्मा मुक्तिको प्राप्त करता है। इस प्रकार आत्मधर्मका उन्होंने मक्सिके साथ वर्णन किया । इस प्रकार के आध्यात्मिक विवेचनको सुनकर वहाँ उपस्थित सभी कुमार अत्यन्त प्रसन्न हुए। वाह ! वाह ! बहुत अच्छा हुआ । अब इस गायन में बहुत समय व्यतीत हुआ । अब साहित्यकलाका आस्वादन लेखें इस प्रकार कहते हुए साहित्यकलाकी ओर विहार करने की इच्छा को । व्याकरण में, तर्कशास्त्र में, न्यायभाषा में, प्राकृत, गीर्वाण और देशीय भाषामें उन्होंने अनेक विषयको लेकर संभाषण किया। रसशास्त्र, काव्यशास्त्र, नाटक, अलंकार, छन्दःशास्त्र, कामशास्त्र, रसवाद, आदि अनेक विषयों में विचार विनिमय किया । कन्यावाद एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। उन अनेक अर्थोको एक शब्दका
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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