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________________ भरतेश वैभव वह शुद्ध है, बुद्ध है नित्य है, सत्य है, शुद्ध भायसे सहज गोधर है। सिब है, मिन है, शंकर है, निरंजन-सिद्ध है, अन्य कोई नहीं है। वह ज्योतिस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, वोतराग है, निरामय है, जन्मजरामृत्युसे रहित है, कर्मसंवातमें रहनेपर भी निर्मल है। यह आत्मा वचन मनको गोचर नहीं है। शरीरसे मिश्रित न होकर इस शरीरमें वह रहता है । स्वसंवेदनानुभवसे यह गम्य है । उसको महिमा विचित्र है। विवेकीजन स्वतःके ज्ञानसे स्वतःको जो जानते हैं, उसे स्वसंवेदन कहते हैं । मंत्री ! जब यह मोक्षके लिए समीप पहुंच जाता है तब अपने आप वह स्वसंवेदन ज्ञान प्राप्त होता है। इस परमात्माको स्वयं अनुभव कर सकते हैं । परन्तु दूसरोंको बोलकर बता नहीं सकते हैं । सुननेवालोंको तो सब बातें आश्चर्यकारक है। परन्तु ध्यान व अनुभव करनेवालोंको बिलकुल सत्व मालूम होती हैं। आत्मामें विकार उत्पन्न करनेवाले इंद्रियों को बांधकर, श्वासके वेगको मंदकर, मनको दाब कर, चारों तरफ देखनेवालो आँखोंके मींचकरसुज्ञान नेत्रसे देखनेपर यह आत्मा प्रत्यक्ष होता है। __ मंत्री ! वह जिस समय दिखता है, उस समय मालूम होता है कि शरीररूपी घड़ेमें दूध भरा हुआ है, या शरीररूपी घरमें भरे हुए शीतल प्रकाशके समान मालूम होता है। ___ दूध व प्रकाश तो इंद्रियगम्य हैं। परन्तु यह आत्मा इंद्रियगम्य नहीं है । इसलिए वह उपमा ठीक नहीं है। आकाशरूपी दुध व प्रकाशके समान है, यह विचित्र है।। जो वचनके लिए अगोचर है, वह ऐसा है, वेसा है, इत्यादि रूपसे कैसे कहा जा सकता है। इसलिए में उसका वर्णन नहीं कर सकता है। लोकमें जो अप्रतिम है ऐसे चिद्रूपको किस पदार्थ के साथ रखकर कैसे बराबरी कर बता सकते हैं ? शक्य नहीं। स्वानुभवगम्य पदार्थको अपने आप ही जानना व देखना उचित है। सामने रखे हुए पदार्थके साथ उपमित कर ऐसा है, वैसा है, कहना सब पचार है। वह आत्मा एक ही दिन में नहीं दिख सकता है, क्रमसे ही दिखता है। एक दफे अनेक चन्द्र व सूर्योके प्रकाशके समान उज्ज्वल होकर दिखता है,
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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