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भरतेश वैभव है धर्मानुराग ! भरतजीके हृदय में वह धर्मानुराग कूटकूट कर भरा हुआ था यह कहनेकी बागकामाला हो व्या है ?
इतनेमें उन आये हुए सज्जनोंसे यह पूछा कि हमारे भुजबलि योगोंद्र कैसे हैं ? तब वे कहने लगे कि स्वामिन् ! वे कैलासपर्वतको छोड़कर गजविपिन नामक घोर अरण्य में तपश्चर्या कर रहे हैं । उनके तपका वर्णन भी सुन लीजिये। ____ जबसे उन्होंने दीक्षा ली है तबसे वे भिक्षाके लिए नहीं निकले हैं, वृक्षशोषण करने योग्य धूपमें खड़े होकर आत्मनिरीक्षण कर रहे हैं। एक दफे मिची हुई आँखें पुनः खुलो नहीं, एक दफे बंद की हुई ओठे पुनः खुली नहीं, दीर्घकाय कायोत्सर्गसे दृढ़ होकर खड़े हैं, लोक सब आश्चर्य के साथ देख रहा है।
उनकी चारों ओर बांबी उठ गई हैं, लतायें सारे शरीरमें व्याप्त हो गई हैं, अनेक सर्प उनके शरीरमें इधर-उधर जाते हैं परंतु वह योगींद्र चित्तको अर्कप करके पत्थरको मूर्तिके समान खड़ा है। ___ यह सुनकर भरतजीको भी आश्चर्य हुआ। दीक्षा लेकर एक वर्ष होनेपर भी तबसे मेरुके समान खड़ा है। भगवान् ही जानें उसके तपोबलको। इतनी उनता क्यों ? इन सब विचारोंको भगवान आदिनाथसे ही पूरेंगे, इस विचारसे भरतजी एकदम उठे व विमानारूढ़ होकर आकाश मागसे कैलासपर्वतपर पहुंचे, समवशरणमें पहुंचकर पिताके चरणों में भक्ति से नमस्कार किया। तदनंतर कच्छ केवली, महाकच्छ केवली व अनंतवीर्यकेवलोकी वंदना को एवं बादमें भगवान् वृषभ की भक्तिसे पूजाकर जन तीनों केवलियोंको भी पूजा की, स्तुति की, भक्तिपूर्वक विनय किया और अपने योग्य स्थानमें बैठकर प्रार्थना करने लगे कि भगवान् बाइबलि योगीके कर्मकी इतनी उग्रता क्यों ? अत्यंत घोर तपश्चर्या करने पर भो केवलज्ञानकी प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है ?
तब भगवान्ने भरतजीसे कहा कि हे भव्य ! घोर तपश्चर्या होने मात्रसे क्या प्रयोजन ? अंतरंगमें कषायोंके उपशमको आवश्यकता है । इस चंचल चितको आत्मकलामें मिलनेको आवश्यकता है।
क्रोध, मान, माया और लोभके बोधसे जो अंदरसे बेच रहे हैं उनको बोधको प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उसके लिए अपने चित्तको निर्मल करके आत्मसमाधिमें खड़े होनेकी जरूरत है।
बाहरके सर्व पदार्थोंको छोड़ सकते हैं । परंतु अंतरंगके शल्यको छोड़ना