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भरतेश वैभव
३७३ लगेगी । इसलिये सब लोग उस जागृताको सेवापत र तृप्त हुए, इसनी बातें कहनेसे सभी विषयोंका अन्तर्भाव हो जाता है ।।
बिनोदसे सबको तृप्ति हुई थी, पूजनमें तृप्ति हुई, भोजनमें भी तृप्ति हुई । सबने हाथ धो लिया, यह सब माताके आगमन की खुशी है। क्या विचित्रता है ? प्रतिसमय आनन्द ही आनन्द भरतेश्वरके भवनमें छाया हुआ रहता है । दिन-दिनमें, समय-समयमें नूतन आनन्दमन भावोंको वे धारण करते हैं। इसका कारण क्या है ! माताका दर्शन उन्हें अचिन्तित रूपसे हुआ। कितनी भक्ति ! कितना आनन्द ! वे सदा उसी प्रकारकी भावना करते रहते हैं ।
हे परमात्मन् ! तुम बात-बातमें, क्षण-क्षणमें, नये व नूतन आनन्दके भावोंको उत्पन्न करते हो । सचमुझमें सुम सातिशयस्वरूप हो, अमृतनिकेतन हो ! इसलिये मेरे हृदयमें सदा बने रहो।
हे सिद्धात्मन् ! तुम मंगलाचार्य हो ! मंदरधैर्य हो, । भव्यांत रंगकगम्य हो ! सुसौम्य हो ! संगीतरसिक हो, चिद्घनलिंग हो, हे निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान करो।
इसी भावनाका फल है कि भरतेश्वरके हृदयमें समय-समयमें नव्य व दिव्यसुखके तरंग उठते रहते हैं ।
इति अंगिकादर्शनसंषि.
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अथ कामदेव* आस्थानसंधि माताके दर्शन पर भरतेश्वर परमसंतुष्ट हुए। दूसरे दिन प्रस्थान भेरी बजाई गई। सेनाने आगे बहुत वैभवके साथ प्रस्थान किया । सेनाके आगे चंद्रध्वज, सर्यध्वज आदिके साथमें चक्ररत्न जा रहा था। देखते समय ऐसा मालूम हो रहा है कि साक्षात् सूर्य ही छल रहा हो।
आठ दस मुक्कामको तय करते हुए पोदनपुरके पाससे जिस समय चक्रवर्तीकी सेना जा रही थी एकदम वह चक्ररन रुक गया। उस चक्ररत्नका नियम है कि जिस राज्यमें चक्रवर्तीके भक्तराजा हैं वहाँ तो आगे बढ़ता है और जहाँका राजा चक्रवर्तीके लिए अनुकूल नहीं है
'आस्थान नाम दरबारका है ।