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भरतेश वैभव परिवार स्त्रियों विरुदावली बोल रही थीं। कच्छेद्रपुत्री, सुभद्रादेवी, गुणरत्नगुच्छसे शोभित स्त्रीरत्न आ रही हैं । सावधान हो।
सभी रानियोंने पूछा कि जीजी ! आपने देरी क्यों लगाई ? जल्दी क्यों नहीं आई। उत्तरमें सुभद्रादेवी ने कहा कि मैं अन्तमें आई हुई हैं। ऐसी अवस्थामें तुम लोगों के बाद ही मेरा आना ही ठीक है। सुभद्रादेवीने अपने पिताकी सहोदरी यशस्वतीके चरणोंमें बहुत भक्तिसे नमस्कार किया। यशस्वतीको देखनेपर पिताको देखनेके समान उसे हर्ष हुआ । यशस्वतीको सुभद्रादेवीको देखनेपर अपने भाईको देखनेके समान हर्ष हुआ। बहुत हर्षसे सुभद्रादेवीको आलिंगन देकर आशीर्वाद दिया। देवी, तुमको मैंने बचपनमें देखा था। फिर बादमें अपन दूर हई । अब जवानीमें फिरसे तुम्हें देखनेका योग शिक्षा भन्ने गाईको देखनेके समान हो गया। दोनोंके आँखोंसे आनंदाश्रु बहने लगा। इतने में घंटानाद हुआ। सूचना थी कि अब भोजन का समय हो गया है। सब लोगोंको उस समय यशस्वती माताके आनेसे महलमें महापर्वके समान आनन्द होने लगा। स्त्रियाँ वहाँसे जाकर स्नान, देवपूजा वगैरहसे निवृत्त हुई व महाविभवके साथ भोजनगृहमें प्रविष्ट हई।
भोजनशालामें झूलेके ऊपर निर्मित एक सुन्दर आसनपर सब बहुओंकी प्रतीक्षामें यशस्वती महादेवी बैठी हैं । भरतेशकी इच्छा हुई कि माताजीकी पूजा करें। इसलिये पासमें ही ऐसे सिंहासन रखवाकर मातासे कहा कि आप इसपर विराजमान हो जाएँ। यशस्वतीने कहा कि उस दिन पर्योपवासके बहानेसे पूजाके लिये स्वीकृति दी थी । आज मैं नहीं स्वीकार करूंगी। मेरी पूजाकी क्या जरूरत ? भरतेशने कहा कि माताजी ! एक दफे मेरी इच्छाकी पूर्ति और कीजिये। मुझे पूजा करने दीजिये। माताने इनकार किया व यहींपर बैठी रहीं। तब सम्राट्ने अर्कफीतिसे पूछा कि बड़े भैया ! तुम बोलो! अब क्या उपाय करना चाहिये ? उत्तरमें अर्ककीर्तिने कहा कि पिताजी ! आशा दीजिये। मैं उस आसनसहित दादीको उठा ले आता है ! भरतेश्वरने आदिराजसे पूछा तो उसने कहा कि पिताजी ! अनपको पूजा करनी है, दादीको वहीं बैठे रहने दीजिये। अपन वहींपर सामने बैठकर पूजा करेंगे । इस प्रकार भरतेशके कानमें कहा । अन्य पुत्रोंको भी उसी प्रकार पूछा तो उन्होंने कहा कि हमारे बड़े भाइयोंने जो उपाय कहा है उससे अधिक हम क्या कह सकते हैं ? भरतेश्वरने अर्ककीति व आदिराजसे कहा कि बेटा । तुम लोगोंने जो तंत्र कहा है, वह ठीक तो है। परंतु उस संत्रसे