________________
३१४
भरतेश वैभव
के तरंगीको उत्पन्न करनेका सामर्थ्य तुममें है । तुम मनोहर व चरितार्थ हो । सुख के भंडार हो । अतएव मेरे अंतरंगमें बने रहो ।
हे सिद्धात्मन्! जो आपका ध्यान करते हैं उनको आप दिव्य भोगोंका संधान कर देते हैं। आपकी महिमा उपमातीत है । स्वा"मिन् ! आप ज्ञानियोंके अधिपति हैं। फिर देरी क्यों ? सम्पत्ति प्रदान कीजिये ।"
इसी उत्कट भक्तिपूर्वक भावनाका फल है कि भरतेश्वर इस संसारमें भी सुखका अनुभव कर रहे हैं।
इति मंगलायन संधि
111
मुद्रिकोपहार संधि
भरतेश्वरकी ओरसे गये हुए राजाओंने बहुत वैभव के साथ विजया पर्वतके ऊपर आरोहण किया । मार्ग में चक्रवर्तीके मन्त्रीने मौका देखकर नमिराज के मन्त्रीसे कहा कि मन्त्री ! एक बात सुनो, चक्रवर्तीकी ओरसे जो राजा आये हैं, वे नमिराजको नमस्कार करेंगे । परन्तु भेंट वगैरह समर्पण नहीं करेंगे । नमिराज भी उनको नमस्कार करेंगे । चक्रवर्तीके कुछ मित्र व मैं भेद रखकर नमस्कार करेंगे। क्योंकि मैं ब्राह्मण हैं और मित्रगण चक्रवर्तीकी इच्छा के अनुवर्ती हैं। इसलिये हम तो उनको महत्व दे सकेंगे । बाकीके व्यन्तर विद्याधरराजा वगैरह मानी है । वे चक्रवर्तीको छोड़कर और किसीको भी नमस्कार नहीं करेंगे। विवाहके लिये जो आयेगा उनको नौकरोंके समान देखना क्या उचित होगा ? हमलोग जो उसकी इच्छानुसार घरपर आते हैं यह कोई कम महत्वकी बात नहीं हैं। इसे स्वीकार करना ही चाहिये । सुमतिसागर मन्त्रीने भी उसे स्वीकार कर लिया । सुमतिसागरने आगे जाकर नमिराजको सर्व वृत्तान्त कहा, नमिराज भी प्रसन्न हुआ । कालिन्दी व मधुबाणीने जाकर यशोभद्रादेवीको समाचार दिया । यशोभद्रादेवीको भी परमहर्ष हुआ । नमिराजने अपने मन्त्रीके साथ अनेक राजाओंको स्वागत के लिये भेजा ।
I
शठनायक--सम्राट्का मन्त्री आया है। उसके लिए अपने मंत्रीको, राजाओंके लिये राजाओंको स्वागतके लिये भेजा है क्या अपने भाईको भेजना नहीं चाहिये ? यह कितना अभिमानी है ?
दक्षिण -- इससे क्या बिगड़ा, हमारे स्वामीके लिए कन्यासंधान