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________________ भरतेश वैभव २९७ I इस पर्वत में भी विजयार्धके समान ही एक दरवाजा होता तो अपने आगेकी शोभा देखने के लिए जा सकते थे। आगे क्या-क्या स्थान हैं ? बोलो तो सही । मागधामर विनयसे कहता है कि स्वामिन्! आपका कहना सत्य है । परन्तु हिमवान् पर्वतके उस भागमें जो रहते हैं उनको हमारे समान आपकी सेवा करनेका भाग्य नहीं है। इस पर्वतकी उस ओर भोगभूमि है । बहाँके मनुष्य भोयमें आसक्त हैं । वहाँपर सम्यक्त्व नहीं, व्रताचरण नहीं, इतना ही नहीं प्रतिकों का संगति भी उनको नहीं है। स्वामिन्! उनसे तो हम व्यन्तरगण अधिक भाग्यशाली हैं। क्योंकि व्यन्तरोंको भी व्रत नहीं है । तथापि व्रतियों की संगति हमें मिल सकती है। अतएव हम आपकी सेवामें रहकर अनेक तत्वोपदेश वगैरह सुननेके अधिकारी हुए। जिस प्रकार वे और हम व्रतरहित हैं, उसी प्रकार इस खंडमें रहनेवाले म्लेच्छ भी व्रतहीन हैं । तथापि वे आर्यभूमि पर आकर व्रतादिक ग्रहण करते हैं । अतएव वे महापुण्यशाली हैं । स्वामिन् ! हम लोग तो समवरसरणमें जाकर जिनेन्द्रका दर्शन करते हैं, पूजा करते हैं. किसीने उत्तमदान दिया तो उसमें हर्ष प्रकट कर अनुमोदना देते हैं । परन्तु यह भाग्य हिमवान् पर्वतकी उस ओर रहने वाले जीवोंके लिए नहीं है केवल वे चिजक ऐसे साधुओंको आहार देकर उसके फल से उस भोग भूमिमें जाकर उत्पन्न होते हैं । वहाँपर पुण्यकर्मका संचय नहीं करते हैं । साक्षात् जिनेन्द्र के प्रथमपुत्र, आपका दर्शन करनेका भाग्य इस क्षेत्रवालोंको जिस प्रकार प्राप्त हो सकता है, वह उस क्षेत्रवालोंको प्राप्त नहीं हो सकता है। स्वामिन्! भोगभूमिज जीवोंको आपके दर्शन करनेका भाग्य नहीं अतएव प्रकृतिने हिमवान् पर्वतपमें विजयार्ध के समान दरवाजेका निर्माण नहीं किया गया। इत्यादि प्रकारसे मागधामरने बहुत बुद्धिमत्ताके साथ कहा । वरतनु आदि व्यंतर भी मागधामरके चातुर्य पर प्रसन्न हुए: स्वामी हृदयको पहिचानकर वस्तुस्थितिका वर्णन करने में मागधामर चतुर है । भरतेश्वरने भी मागधामरसे कहा कि मैंने केवल विनोदके लिये कहा था । नहीं तो मैं जानता ही था उससे आगे अपनेको जानेकी आवश्यकता हो नहीं । इस प्रकार कहकर आगे प्रस्थान किया और गंगाकूटकी ओर जाने लगे। भरतेश्वर गंगाकूटकी ओर जिस समय आ रहे थे, उस समय मार्ग में उनके स्वागत के लिये स्थान-स्थान पर तोरण लगाये गये हैं । कहीं रत्नतोरण हैं, कहीं पुष्पतोरण हैं, कहीं पत्रतोरण हैं। गंगादेव
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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