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भरतेश वैभव
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हे दिव्यलोचन ! मुझे भी इस प्रकारकी सुबुद्धि दीजियेगा | भगवन् ! कृत्रिमवृष्टिकी तो मामूली बात है । कर्मके आस्रवरूपी वृष्टि अनंतानंत कार्मार्गणा के समूह से प्रतिसमय हमपर पड़ती है । उसे आत्मध्यानरूपी उत्कृष्ट छत्रसे आप निवारण करते हैं। इसलिए हे निर्ममाकर ! आप मेरे हृदय में सदा बने रहें जिससे मैं किसी अकृतिम अलौकिक वृष्टि से भी भयभीत न हो सकूँ ।
इस प्रकार की भावनाका ही फल है कि सम्राट्के संकट हरसमय लीलासे टलते जाते हैं ।
इति वृष्टिनिवारण संधि
सिंधुदेवियाशिर्वादसंधि
सात दिनतक भयंकर वृष्टि होनेसे भरतेश्वरकी रानियोंके चित्तमें एकदम उदासीनता छा गई थी । भरतेश्वरने दो दिनतक महल में रहकर उनके हृदय में हर्षका संचार किया। जिस प्रकार ओस पड़कर मुरझाये हुए कमलोंको सूर्यसे प्रफुल्लित करता है, उसी प्रकार उन म्लान मुखी रानियोंको गुणशाली भरतेश्वरने आनंदित किया। अंदरसे स्त्रियों को प्रसन्न करके बाहर दरबारमें आये व जयकुमार आदि वीरोंको सम्बोधन कर कहने लगे कि आप लोगोंने युद्धमें बहुत कष्ट उठाया, बड़ी मेहनत की। सम्राट्के बचतको सुनकर जयकुमार आदि बीर बोले कि स्वामिन्! हमें क्या कष्ट हुआ ? आपके दिव्यनामको स्मरण करते हुए हम लोग युद्ध करते हैं । उसमें सफलता मिलती है । इसमें हमारी वीरता क्या हुई। सब कुछ आपकी ही कृपाका फल है । स्वामिन्! हम झूठ नहीं बोल रहे हैं। आपका पुण्य अनुपम है। हम लोग जब उन मायाचारी देवताओंको इधरसे दबाते हुए जा रहे थे इतनेमें उधरसे अकस्मात् ही दो देव अपनी सेनाके साथ उनको दबाते हुए आ रहे थे, साथमें आपके नामको भी उच्चारण कर रहे थे । वे उधरसे आ रहे थे, हम इधरसे जा रहे थे । बीचमें फँसे हुए देवताओंने देखा कि अब बिलकुल बच नहीं सकते हैं, इसलिए वे एकदम जान बचाकर भाग गये । जयकुमारके निवेदनको सुनकर सम्राट्ने मागधामरसे प्रश्न किया कि मागध ! वे दोनों देव कौन थे । मागधामर कहने लगा कि स्वामिन्! वे दोनों हमारे व्यन्तरोंके लिए माननीय
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