SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ भरतश वैभव उनकी उचित व्यवस्था कीजिएगा । तदनुसार क्षणभरमें वह मण्डप रिक्त हो गया । भरतेश्वर भी उन विवाहित नारियोंको लेकर महलमें प्रवेश कर गए । महलमें उन्होंने शयनागारमें पहुँचकर उन नववधुओंके साथ अनेक विनोद संकथालाप किर । साथमें अनेक प्रकारसे सुखोका अनुभव किया एवं बादमें सुखनिद्रामें मग्न हुए। उनके साथ में जितने भी सुखोंका अनुभव किया वह पुण्यनिर्जरा है, इस प्रकार भरतेश्वर विचार कर रहे थे । प्रातःकालके प्रहरमें भरतेश्वर उन नारोमणियोंका निद्राभंग न हो उस प्रकार उठकर अपने तत्पर ध्यान करने के लिए बैठे । पापरहित निरंजनसिद्धका उन्होंने अपने हृदयमें अनुभव किया। बाद अरुणोदय हुआ । मुप्रभात मंगलगीतको मानेवाले वहाँपर उपस्थित होकर सुन्दर गायन करने लगे। भरतेश्वर अभी तक आत्मदर्शन ही कर रहे हैं। गायनको सुनकर वे नव स्त्रियां अपनी शय्यासे उठी और भरतेश्वरकी ध्यानमग्नावस्थाकी शोभाको देखने लगी । भरतेश्वरने ध्यानपूर्ण किया, साथमें अपने अनेक रूपोंको अदृश्य किया। नवविवाहित स्त्रियोंको आश्चर्य हुआ, भरतेम्वर अपने शय्यागहसे बाहर आये व नित्यकर्ममें लीन हए । इस प्रकार भरतेश्वरका तीन सौ विद्याधर कन्याओंके साथ विवाह हुआ । यह उनके पुण्य का फल है। उन्होंने पूर्व जन्ममें सातिशय पुण्यका उपार्जन किया था और अब भी अखंड साम्राज्यको भोगते हए भी उसके यथार्थस्वरूपको जान रहे हैं, अपने आत्माको बिलकुल भूल नहीं जाते हैं। सुखोंके भोग करने में वे उदासीनतासे विचार करते हैं कि इतने समयत्तक मेरे पुण्यकर्मकी निर्जरा हुई। यह मुझे पुण्यकर्मके फलका अनुभव करना पड़ रहा है। ___ सतत उनकी भावना ग्रह रहती है कि "हे परमात्मन् ! तुम लोकमें सर्व सुख-दुःखके लिए साक्षीके रूपमें रहते हो । परंतु उनको साक्षात् अनुभव नहीं करते, क्योंकि तुम मोनके स्वरूपमें हो। इसी प्रकार मेरी आत्मा है । इन्द्रिग्रजन्य सुत्रोंके लिए केवल वह साक्षी है । साक्षात अनुभवी नहीं है। यह केवल पुण्यवर्मणाओंकी लीला है। हे सिद्धात्मन् ! कोंकी निर्जरा जितने प्रमाणमें होती जाती है उतना ही अधिक सुख आत्माको मिलता जाता है। इसका साक्षात्कार आप कर चुके हैं, इसलिए आप लोकपूजित हुए हैं । इसलिए मुझे भी उसी प्रकारकी सुबुद्धि दीजियेगा।"
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy