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________________ भरतेश वैभव २६३ में सर्व परिवार आनंदसे हैं न ?" भरतेश्वरने विनमिसे प्रश्न किया । " आपकी कृपासे मैं कुशल हूँ, नमिराज भी क्षेमपूर्वक है, घरमें सब आनन्द मंगलमय है ।" भगवान् आदिनाथ के पुत्र होकर आप भरतखण्डके राज्यको पालन करते हुए हम सब बन्धुजनवनको वसन्तके समान हैं। फिर हमें आनन्द क्यों नहीं होगा ? विनमिने हँसते हुए कहा "भाई नमिराज भी यहाँ आ रहे थे । परन्तु आपके पधारनेके पहिले उन्होंने भ्रामरी नामक एक विद्या सिद्ध करनेके लिये प्रारम्भ किया है। इसलिये उनका प्रयाण स्थगित हुआ। वे मंत्रयोगमें लगे हुये हैं । उनको मैं समाचार देकर मंत्रीके साथ चला आया" इस प्रकार बिनमिने तंत्रके साथ कहा । भरतेश्वर मन मनमें इस तन्त्रको समझकर भी मौनसे रहे । पुनः विनमिराज बोला । "आपके गम्भीर राज्यवैभव - ऐश्वर्यको देखकर लोकमें किसे सन्तोष न होगा इसलिये इस विजयार्धके अनेक विद्याधर राजा अपनी-अपनी सुन्दर उत्तम कन्याओंको आपको समर्पण करनेके लिये लाये हैं। अनेक राजा उत्तमोत्तम अन्य भेंट लेकर आये हैं । उनको अन्दर आनेके लिये आज्ञा होनी चाहिये ।" इस सम्बन्ध में पहिलेसे सम्राट्ने दक्षिण नायकको सूचना दे रखी थी। इसलिये समयको जानकर दक्षिणांकने सुमतिसागर मंत्री के साथ कहा कि मंत्री ! तुम्हारे राजाओंने जो मम्राको समर्पण करनेके लिये अपनी कन्याओंको साथ लाये हैं उनको पहिले अन्दर आने दो, बादमें बाकी के राजाओंको आकर भरतेश्वरको नमस्कार करने दो। सुमतिसागर मंत्रीने भी उसी प्रकार व्यवस्था की । उसी समय बहुत से विद्याधर राजा सन्तोषके साथ दरबार में प्रविष्ट हुए और उन्होंने चक्रवर्तीको नमस्कार किया, उनको योग्य आसन दिलाये गये । वे उनपर बैठ गये । उन्होंने आकर साष्टांग नमस्कार किया और उनको बैठने के लिए नीचे आसन दिये गये। वे उनपर बहुत आनन्द के साथ बैठे । सम्राट्के मित्रांने मन- मनमें ही विचार किया कि उत्तम रूपवती कन्याओंको उत्पन्न करना यह भी एक भाग्यकी ही बात है। राचमुच में संसारमें स्त्री ही भोगांग है। इसलिए इन राजाओंका इस प्रकार हो रहा है । चक्रवर्ती शरीर सौंदर्य को देखकर वे विद्याधर राजा आश्चर्यचकित हुए । उनको ऐसा मालूम हुआ कि हम देवेंद्रकी सभा में प्रविष्ट हुए हैं। वे मनमें अपने जीवनको धिक्कारने लगे । इस उम्र में यह शरीर सौंदर्य, सम्पत्ति, गौरव, गांभीर्यको प्राप्त करना यह मनुष्यके लिये भूषण है । हम लोगोंका जीवन व्यर्थ है। सुमतिसागर मंत्री खड़े होकर कहने लगा
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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