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50 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
शैलोत्कीर्ण मन्दिर - मेगुटी पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर चट्टान काटकर बनाया गया अथवा शैलोत्कीर्ण छोटा-सा मन्दिर भी है । यह भी सातवीं सदी में निर्मित माना जाता है । इसका मुखमण्डप साधारण है। गर्भगृह का प्रवेशद्वार त्रिशाखा शैली का है । उसी से गर्भगृह में प्रवेश किया जाता है। मूर्ति के पादपीठ पर अंकित सिंह की आकृति से यह अनुमान लगाया जाता है कि उस पर महावीर स्वामी की मूर्ति विराजमान रही होगी जो कि कालान्तर में नष्ट हो गई । वैसे यह भी सत्य है कि अन्य तीर्थंकरों के आसनों पर भी तीन या पाँच सिंह अंकित किए जाते थे ।
गाँव के लाडखाँ मन्दिर वापस लौट आना चाहिए और गाँव में स्थित मन्दिर देखने चाहिए ।
गाँव में स्थित जैन मन्दिर
गाँव में पार्श्व बसदि नामक एक मन्दिर ग्यारहवीं सदी का है जो कि ध्वस्त अवस्था में है । यह कुछ बड़ा ही लगता है । इसका द्वार सप्तशाखा प्रकार का है । इसके सिरदल पर तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है । पत्रावली का अंकन भी सुन्दर है । बारहवीं सदी की लगभग पाँच फुट ऊँची प्रतिमा पर सात फण हैं । मूर्ति पद्मासन में है । उसका आसन पाँच सिंहों के सिर पर है । दोनों ओर गज भी अंकित जान पड़ते हैं । प्रतिमा भी खण्डित या घिस गई जान पड़ती है । ग्यारहवीं सदी की ही एक और तीर्थंकर प्रतिमा मकरतोरण से युक्त है । उसके दोनों ओर चँवरधारी प्रतिमा के मस्तक से ऊपर तक उत्कीर्ण हैं । छत्रत्रय व भामण्डल के साथ ही आसन पर पाँच सिंह प्रदर्शित हैं ।
अन्य मन्दिर - मठ
ऐहोल में और भी अनेक जैनमन्दिर हैं जिन्हें तीन प्रमुख समूहों के नाम से जाना जाता है । ये हैं- चारण्टी मठ समूह, येनियवार गुडी समूह तथा योगी नारयण समूह |
चारण्टी मठ किसी समय एक समृद्ध जैन केन्द्र रहा होगा। यह गाँव की पूर्व दिशा में है । यहाँ के मुख्य मन्दिर का प्रवेशद्वार उत्तर की ओर है । प्रवेश मण्डप में अलंकरणयुक्त स्तम्भ हैं । उसके बाद कुछ बड़ा सभा मण्डप है जिसमें चार स्तम्भ हैं । उसके बाद है गर्भगृह जिसमें महावीर स्वामी की मूर्ति है । इसके प्रवेशद्वार के सिरदल के तीन स्तर हैं । सबसे ऊपर कायो - त्सर्ग मुद्रा में बारह तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । बीच के स्तर में पद्मासन में तीर्थंकर विराजमान हैं। एक स्तर में मन्दिरों के शिखरों जैसा अंकन है । मण्डप के स्तम्भों पर पुष्पों-पत्रों की सुन्दर डिजाइन है । इस मन्दिर में दूसरी मंज़िल भी है । वहाँ पहुँचने के लिए एक ही पत्थर में खाँचे बनाकर सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। ऊपर भी एक गर्भगृह और एक मण्डप तथा अग्रमण्डप हैं । इसका शिखर भी द्रविड शैली का है । पूर्व और पश्चिम में दो लघु मन्दिर भी सभामण्डप से जुड़े हैं । इनके सिरदल पर भी तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, किन्तु गर्भगृह में मूर्ति नहीं है । मन्दिर की दीवाल में 1119 ई. का कन्नड़ में एक शिलालेख है जिसके अनुसार, चालुक्य राजवंश के त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य षष्ठ के शासन काल में 'अय्यावोले के 500 स्वामियों'