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________________ श्रवणबेलगोल / 269 ने इस कुण्ड को खुदवाया होगा ऐसा एक अन्य लेख से ज्ञात होता है। लक्किदोणे-परकोटे से पूर्व की ओर स्थित यह भी एक कुण्ड है । सम्भवतः लक्कि नामक किसी श्राविका ने इस कुण्ड का निर्माण कराया होगा। इसके पास ही एक चट्टान है जिस पर लगभग तीस लेखों में यात्रियों के नाम खुदे हैं। इनमें कवि नागवर्म और कुछ आचार्यों द्वारा यहाँ की वन्दना किए जाने का उल्लेख है। कुछ नाम देखिए--विहारय्य, अकचेय, राजन चट, बड़वर बण्ट, पुलिक्कलय्य आदि नाम और 'श्रीजिनमार्गन्नीतिसम्पन्नन्सर्पचूडामणि' तथा 'श्री कोपण तीर्थद' इत्यादि। चन्द्रगिरि पहाड़ी से यहाँ का अत्यन्त प्राचीन कूष्माण्डिनी देवी का मन्दिर भी दिखाई देता है। श्रवणबेलगोल के आस-पास, शिलालेखों के अनुसार, लगभग 50 तालाब-कुण्ड रहे हैं। जिननाथपुर की ओर पैदल यात्री यदि चाहे तो चन्द्रगिरि से ही जिननाथपुर जा सकता है जहाँ कलात्मक शान्तीश्वर बसदि दर्शनीय है। पैदल रास्ता इस प्रकार है-भद्रबाहु गुफा से नीचे की ओर जाकर लक्कि दोणे के पास से आसान शिलाओं पर से होते हुए पगडण्डी के रास्ते जाने पर जिननाथपुर गाँव दिखाई देता है । इस रास्ते पर चन्द्रगिरि नीची होती चली गई है। उतराई आसान है। यदि सड़क-मार्ग से कोई जाना चाहे तो चन्द्रगिरि की दाहिनी ओर से सड़क जाती है। सड़क मार्ग से जैन मठ से यात्रा प्रारम्भ कर गाँव के मन्दिरों से होकर भी जिननाथपुर पहुँचा जा सकता है । सड़क की ओर से चन्द्रगिरि काफी ऊँची दिखाई देती है। जिननाथपुर गाँव से पहले एक बड़ा तालाब पड़ता है जो कि सड़क के रास्ते में है। इस तालाब में अनेक खण्डित मूर्तियाँ विजित की गई हैं। चन्द्रगिरि के चारों ओर गाँवों में प्राचीन मन्दिरों के खण्हर भी पाए जाते हैं। जिननाथपुर से पहले जो तालाब है उसके पास गाँव में एक चट्टान पर टूटा-फूटा एक शिलालेख है। उससे ज्ञात होता है कि होय्सलनरेश विष्णुवर्धन के प्रधान दण्डनायक गंगराज ने जिननाथपुर 1117 ई. में बसाया था। . अरेगल बसदि-कन्नड़ में अरेगल (कल्लु) अर्थ है चट्टान । यह बसदि एक चट्टान के ऊपर निर्मित है, इस कारण अरेगल बसदि कहलाती है। मन्दिर के मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ हैं। उनकी प्रभावलीयुक्त पाँच फुट ऊँची संगमरमर की पद्मासन प्रतिमा 1929 ई. में इस मन्दिर में प्रतिष्ठित की गई थी। मूल मूर्ति खण्डित हो गई थी इसलिए उसे पास के तालाब में ही विसजित कर दिया गया है। मन्दिर के निर्माण के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि उसे गंगराज के भाई बर्म और हिरि-एचिमय्या ने बनवाया था। इस प्रकार यह भी एक प्राचीन मन्दिर है। - इस बसदि में पन्द्रहवीं सदी की कुछ कांस्य प्रतिमाएँ भी हैं जो सुन्दर एवं प्रभावोत्पादक हैं। इनमें चतुर्दशिका, पंचपरमेष्ठी और नवदेवता का अंकन विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। चतुशिका का अर्थ है चौदह तीर्थंकरों का अंकन। ऊपर अलंकृत चाप में भरतक्षेत्र के पाँच, ऐरावत क्षेत्र के पाँच और जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में विद्यमान चार तीर्थंकरों का अंकन है।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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