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________________ श्रवणबेलगोल | 263 शैली के शिखर की रचना-शैली अत्यन्त उच्च कोटि की शिल्पकला का उदाहरण प्रस्तुत करती है । पद्मासन तीर्थंकरों की पंक्तियाँ, हँसों की शृंखला, हाथियों और सिंहों की व्याल रूप में कतार, मीन (मछली) का उत्कृष्ट अंकन, यक्ष-यक्षिणियाँ, सुघड़ देवकोष्ठ, छोटे-छोटे गुलाबों की सजावट, कुबेर की प्रतिमा, अगला पँजा खड़ा करके बैठे हुए सिंह, कहीं-कहीं दहाड़ते सिंह और भक्त नरनारियों का उत्कृष्ट एवं आकर्षक अंकन है। अष्टकोणीय कम ऊँचा शिखर गुंबददार है। इस बसदि की मोहक अप्सराओं में से एक के बारे में श्री शेट्टर ने लिखा है : "मुंडेर के कई उभारचित्र भारतीय कला इतिहास की सर्वोत्कृष्ट कृतियों में से हैं । यौवन, खूबसूरती तथा निष्कपटता से चमकती हुई कुमारी उनमें से एक है।" इस बसदि की ऊपर की मंज़िल 'मेगल बसदि' (ऊपर का मन्दिर) का निर्माण चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन ने 995 ई. में कराया था ऐसा लेख से ज्ञात होता है। ऊपर जाने के लिए 20 सीढ़ियाँ हैं जिनमें से कुछ बहुत ही छोटी हैं। छोटी सीढ़ियों पर आवाज़ गूंजती है। ऊपर के मन्दिर के गर्भगृह में पाश्वनाथ की 5 फट ऊंची कायोत्सग प्रतिमा है। उस पर सात फण और छत्रत्रयी हैं । सर्प-कुण्डली नीचे तक आई है। पादमूल में यक्ष-यक्षी भी अंकित हैं । एक सर्पफलक भी है । कुला मिलाकर चामुण्डराय बसदि एक उत्तम मन्दिर है। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसी मन्दिर में बैठकर आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रसिद्ध जैनग्रन्थ 'गोम्मटसार' की रचना की थी। एरडुकट्टे बसदि-कन्नड़ भाषा में एरडु का अर्थ है 'दो' । इस मन्दिर के चबूतरे के दोनों ओर सीढ़ियाँ हैं, इस कारण इसे 'एरडुकट्टे बसदि' कहा जाता है। बसदि की लम्बाई 45 फुट और चौड़ाई 26 फुट है। गर्भगृह में आदिनाथ की लगभग साढ़े तीन फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति है । उस पर तीन बड़े छत्र हैं और दोनों ओर चँवरधारी मस्तक से भी ऊपर छत्र तक प्रदर्शित हैं । उनका मुकुट बहुत ऊँचा है। मूर्ति सुन्दर मकर-तोरण से अलंकृत है और उसका आसन पाँच सिंहों हर आधारित है। गर्भगृह से बाहर यक्षी चक्रेश्वरी का मुकुट ऊँचा है और वृक्ष में छोटेबड़े लटकते हुए फल दिखाए गए हैं। इसी प्रकार गोमेद यक्ष भी ऊँचा मुकुट धारण किए हुए है। पत्रावली और मकर-तोरण से यक्ष की मूर्ति भव्य दिखती है। मन्दिर की छत पर कमल का उत्कीर्णन है। नवरंग में 6 स्तम्भ हैं। इनमें जो घण्टाकार स्तम्भ हैं उनमें से एक में लेख मिला है जो इस मन्दिर का निर्माण 9वीं सदी या 10वीं सदी के प्रारम्भ में सिद्ध करता है। ऋषभदेव के सिंहासन पर उत्कीर्ण लेख से यह भी ज्ञात होता है कि 1117 ई. में गंगराज की पत्नी लक्ष्मीदेवी ने इस मन्दिर का निर्माण कराया था। यह सम्भव है कि यह मन्दिर उनके समय में जीर्ण अवस्था में रहा हो और उन्होंने पुराने स्तम्भों आदि का प्रयोग कर इसका जीर्णोद्धार करा दिया हो। मन्दिर की सीढ़ियों से लगा एक शिलालेख भी है। उपर्युक्त बसदि के बाहर चार स्तम्भों का मण्डप है जिसमें चार शिलालेख हैं। सवतिगन्धवारण बसदि–इस मन्दिर का नाम ही मनोरंजक है। 'सवतिगन्धवारण' का अर्थ है- 'सौत रूपी मत्त हाथी को नियन्त्रित करने वाली'। यह विशेषण यहाँ इस मन्दिर के निर्माण सम्बन्धी शिलालेख में होय्सलनरेश विष्णुवर्धन की पटरानी शान्तलादेवी (परिचय के लिए देखिए हलेबिड प्रकरण) के लिए प्रयुक्त हुआ है। उस अत्यन्त रूपवती, नृत्य-संगीत में
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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