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256 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
गोम्मटेश्वर की इस मूर्ति की ऊँचाई नापने के समय-समय पर विभिन्न प्रयत्न किये गये हैं। सबसे पहले मैसूर महाराजा की आज्ञा से कवि शान्तराज पंडित ने 1820 ई. में इस मूर्ति को हाथ और अंगुल के नाप से 1/8 अधिक 38 हाथ ऊँची बताया। अनन्तर बुकनान ने 70 फीट, बेलेजली (जो बाइसराय बने) ने 60 फीट 3 इंच, 1871 ई. में मैसूर के लोक निर्माण विभाग ने 56 फीट, 1885 में मैसूर के कमिश्नर ने तथा 1923 में प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् नरसिंहाचारी ने उसे 57 फीट ऊँचा बताया। 1957 में मैसूर के पुरातत्त्व विभाग ने मूर्ति की नाप की और उसकी ऊँचाई 58 फीट निर्धारित की । सबसे अन्तिम प्रयास 1980 में कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़ 'भारतीय कला इतिहास संस्थान' ने किया है। उसने थियोडोलाइट उपकरण की सहायता से इस मूर्ति की ऊँचाई 58 फीट 8 इंच निर्धारित की है ।
वास्तुविदों के अनुसार, मूर्ति के अंग-प्रत्यंग सही अनुपात में निर्मित किये गये हैं । किन्तु उनकी दृष्टि में अंग - न्यूनता का एक स्थल उनकी तीक्ष्ण दृष्टि से नहीं बच सका । ध्यान से देखने पर बायें हाथ की एक अँगुली कुछ छोटी बनाई गयी है। अनुमान किया जाता है कि उस विनीत शिल्पी ने अपनी लघुता प्रदर्शित करने के लिए शायद ऐसा किया हो । जैन मूर्तिशास्त्र का विधान है कि जिन - प्रतिमाओं का अंकन युवावस्था एवं ध्यानमग्न स्थिति का होना चाहिए। मूर्तिकार ने इसका पूरी तरह पालन किया है । आश्चर्य तो केवल इसी बात का है कि इतनी बड़ी शिला के तक्षण करने में उस प्रधान शिल्पी ने कितनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है ! और भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि मूर्ति पर की गयी चमकदार पॉलिश के कारण वह हाल में ही बनी - सी लगती है ।
मूर्ति की असाधारणता का परिचय देते हुए श्री के. आर. श्रीनिवासन ने लिखा है : "यह अंकन किसी भी युग के सर्वोत्कृष्ट अंकनों में से एक है ।"
गोम्मटेश्वर की यह महामूर्ति अब तक लाखों-करोड़ों जनकण्ठों की प्रशंसा, श्रद्धा एवं आश्चर्य का विषय रही है। सन् 1180 ई. के यहाँ स्थित कन्नड़ कवि बोप्पण द्वारा एक शिला - लेख में जो काव्यात्मक किन्तु वास्तविक मूल्यांकन किया गया है वह उचित ही है
"अतितुंगाकृतिया दोडागददरोल्सौन्दर्य मौन्नत्यमुं सौन्दर्यमुमागमत्तशितयंतानागदौन्नत्यमुं ।
नुत सौन्दर्य मुमूज्जितातिशयमुं तन्नल्लि निन्दिर्द्धवें
क्षिति संपूज्यमो गोम्मटेश्वरजिन श्रीरूपमात्मोपमं ॥ 81 ॥ "
( जब मूर्ति बहुत बड़ी होती है तब उसमें सौन्दर्य नहीं आ पाता । यदि बड़ी भी हुई और सौन्दर्य भी हुआ तो उसमें दैवी प्रभाव का अभाव हो सकता है । पर यहाँ इन तीनों के मिश्रण से गोम्मटेश्वर की छटा अपूर्व हो गई है ।)
बाहुबली महामस्तकाभिषेक
मूर्ति का नित्य चरणाभिषेक और नैमित्तिक महामस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोल की प्राचीन परिपाटी है । एक शिलालेख में यह उल्लेख मिलता है कि पण्डिताचार्य द्वारा 1398 ई. में मूर्ति का मस्तकाभिषेक कराया गया। इसी लेख में यह भी लिखा है कि पण्डिताचार्य ने इसके पूर्व भी