SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 212 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) मन्दिरों का विशाल अहाता है। केदारेश्वर मन्दिर शिव मन्दिर है। ___ अनुश्रुति है कि होय्सल राजधानी में कुल 120 जैन मन्दिर थे किन्तु अब यहाँ केवल तीन मन्दिर बचे हैं जो कि एक ही प्रांगण में हैं। ये मन्दिर भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक हैं। इनमें अब भी पूजन होती है। अब यहाँ केवल दो जैन परिवार हैं। मन्दिर देखने का समय सुबह आठ बजे से शाम के छह बजे तक है। - __ मन्दिरों के प्रांगण की प्रवेश-सीढ़ियों के पास ही ढाई फुट के लगभग एक शिलालेख कन्नड़ में है। उसमें सबसे ऊपर छत्रत्रयी से युक्त पद्मासन तीर्थंकर, दो चँवरधारी, सूर्य-चन्द्र हैं। एक ओर हाथी अंकित है तो दूसरी ओर बछड़े को दूध पिलाती गाय । स्पष्ट है कि यह स्मारक है। सीढ़ियों के दोनों ओर लगभग दो फुट ऊँचे हाथी बने हैं। उनके गले में मोतियों की माला हैं और पीठ पर भी मोतियों की झूल है। उनकी सूंड में कमल है तो पैरों के बीच में बड़ा कमल। प्रांगण में प्रवेशद्वार के बाद मन्दिर की ओर मुँह किए दो हाथी सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण हैं। पार्श्वनाथ मन्दिर के मुखमण्डप की प्रवेश-सीढ़ियों के जंगलों के रूप में दो हाथी गहनों और मालाओं से मनोहर रूप में अंकित किए गए हैं । ऐसा लगता है कि वे अभी दौड़ने ही वाले हों, उनके पैरों का अंकन इसी प्रकार किया गया है। (1) विजय पार्श्वनाथ बसदि-यह यहाँ का सबसे बड़ा जैन मन्दिर है। उसके सामने बलिपीठ भी है। बाहर क्षेत्रपाल भी हैं। इसके मुखमण्डप में 32 स्तम्भ हैं जिनके सूक्ष्म वलय मनोहर हैं। उन पर मौक्तिक मालाओं और पत्रावलि का सुन्दर अंकन किया गया है। मुखमण्डप की छत में पुष्परचना और उसके बाद धरणेन्द्र यक्ष का उत्कीर्णन है। मुखमण्डप के बाद या मन्दिर के बाहर चार शिलालेख हैं । इनमें से एक बारह फुट ऊँचा है। उसमें सबसे ऊपर भगवान महावीर विराजमान हैं । उनके आसन पर सिंह का चिह्न है। छत्रत्रयी और चँवरधारी भी प्रशित हैं। एक ओर गाय प्रदर्शित है। सर्य-चन्द्र और कीतिमख तथा कन्नड में लेख है। इसमें मन्दिर के निर्माण का इतिहास है । होयसल वंश की वंशावली देकर यह उल्लेख है कि राजा विष्णुवर्धन के सेनापति बोप्प ने 1133 ई. में इसका निर्माण कराया था और जब इसकी प्रतिष्ठा का गंधोदक लेकर पुजारी बंकापुर विष्णुवर्धन के पास पहुँचा तो उसने उसे मस्तक से लगाया और युद्ध में उसी समय हुई अपनी विजय का कारण पार्श्वनाथ को मान इस मन्दिर का नाम 'विजय-पार्श्वनाथ' रखा। उसे उसी समय पुत्र-प्राप्ति का भी समाचार मिला था। उसने अपने पुत्र का नाम भी विजय नरसिंह रखा और यह सब पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठापना का फल समझा। उसने मन्दिर के लिए जावगल नामक गाँव दान में भी दिया। अन्य शिलालेखों (प्रांगण के भी) का सार मन्दिरों के वर्णन के बाद दिया जाएगा। विजय-पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार के सिरदल पर पद्मासन में महावीर स्वामी विराजमान हैं। उनके आसपास चँवरधारी भी हैं। द्वार के आसपास के स्तम्भ सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह से पहले भी एक विशाल द्वार है । उसके सिरदल पर भी पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति है। मूलनायक पार्श्वनाथ हैं। उनकी सफेद ग्रेनाइट पत्थर की चौदह फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्ति पर सात फणों की छाया है। छत्र एक ही है और मकर-तोरण की संयोजना है। वे उलटे कमलासन पर प्रतिष्ठित हैं। उनके घुटनों के पास धरणेन्द्र और पद्मावती का अंकन है।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy