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________________ हलेबिड | 207 गन्धोदक लेकर राजा विष्णुवर्धन के पास बंकापुर पहुँचा । यह राजा अपनी सेना सहित वहाँ पड़ाव डाले हुए था और उसने मसण नामक कदम्ब राजा पर विजय पाई थी। ठीक उसी समय उसे यह समाचार भी मिला कि उसकी एक रानी लक्ष्मीदेवी ने पुत्र को जन्म दिया है। पार्श्वनाथ मूर्ति की स्थापना, पुत्रप्राप्ति और युद्ध में विजय ये सब एक साथ होने से राजा आनन्दित हुआ। वह गन्धोदक लेने के लिए अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और उसे अपने मस्तक से लगाते हुए उसने कहा, "भगवान पार्श्वनाथ के ही कारण मैंने युद्ध में विजय प्राप्त की है और मुझे पुत्र की प्राप्ति हुई।" इसलिए उसने द्वारावती के पार्श्वनाथ जिनालय का नाम 'विजय-पार्श्वनाथ' और अपने पुत्र का नाम 'विजय नरसिंहदेव' रखा। साथ ही, उपर्युक्त जिनालय के लिए जावगल नामक एक गाँव और अन्य विविध प्रकार के दान दिए। (10) सन् 1137 ई. के सौम्यनाथ जिनालय (बेलूर) की छत के पत्थर पर एक लेख है जिसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है। उसमें उल्लेख है कि विष्णुवर्धन के दण्डनायक बिट्टियण्ण ने द्वारसमुद्र में 'विष्णुवर्धन जिनालय' का निर्माण कराया था और स्वयं राजा से मय्सेनाड में बीजेबोल्लदर नामक गाँव दान में प्राप्त किया था। इसमें भी विष्णुवर्धन को 'वासन्तिकादेविलब्धवरप्रसाद' कहा गया है। शेष बचे भाग में विष्णुवर्धन की विजयों का उल्लेख अधिक है। (11) सन् 1138 ई. के सिन्दगेरे के शिलालेख में भी उसे 'सम्यक्त्वचूड़ामणि' बताया गया है। (12) श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में भी उसकी उपाधि सम्यक्त्वचूड़ामणि' है। यह लेख विष्णुवर्धन की पट्टरानी शान्तला द्वारा निर्मित 'सवतिगन्धवारण बसदि' के दूसरे मण्डप के तीसरे स्तम्भ पर और जिननाथपुरम् में अरेगल बसदि के पूर्व की ओर है। सन् 1141 ई. में विष्णुवर्धन का देहावसान हो गया। (13) मूडबिद्री में प्राचीन जैन ग्रन्थ 'षट्खंडागम' की प्रसिद्ध 'धवला', 'जयधवला' और महाधवला' नामक टीकाएँ ताडपत्रों पर लिखी और कहीं-कहीं रंगीन चित्रों से सुसज्जित आज भी मौजूद हैं। उनमें विष्णुवर्धन और उसकी पट्टमहिषी शान्तला का 12वीं सदी का (उनके अपने समय का ही) चित्र आज भी देखा जा सकता है। यदि वह जैनधर्म का द्वेषी या विनाशकर्ता हो गया था तो उसका चित्र पवित्र एवं प्राचीन ग्रन्थ की पाण्डुलिपि में क्यों बनाया गया होता ? स्पष्ट है वह जैन ही था और जैन ही बना रहा। चित्र में राजा और रानी दोनों को भक्ति-मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है (चित्र का ऊपर का कोना फट गया है)। इस ताडपत्रीय पाण्डुलिपि के चित्रों के बारे में सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता शिवरामति ने 'साऊथ : पेनोरमा ऑफ जैन आर्ट' में लिखा है कि ये चित्र विष्णुवर्धन के समय के ही हैं और उसकी पट्टरानी शान्तला की प्रेरणा से बनाए गए होंगे। उनका मत है : क्योंकि वही एक ऐसी कला-संयोजिका रानी थी जो सुन्दर से सुन्दर चित्र अपने समय के मूर्धन्य कलाकारों से निर्माण करवाती थी। महान विदुषी और कला-संवधिनी के रूप में उसकी ख्याति से वे सभी परिचित थे। (14) बेलूर के चन्नकेशव मन्दिर के प्रसंग में पुरातत्त्ववेत्ता फर्ग्युसन का यह मत उद्धृत
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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