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________________ मंगलोर जिले के अन्य जैन स्थल | 197 दिखाए गए हैं । संगमरमर की डेढ़ फुट ऊँची तेरहवीं सदी की मूर्ति अर्ध पद्मासन में है। चौदहवीं शती की महावीर स्वामी की कांस्य प्रतिमा का अलंकरण मनोहर है। स्टूल जैसे आसन पर विराजमान यह मूर्ति एक बाहरी और एक भीतरी चाप तथा मकर-तोरण एवं कीर्तिमुख से विभूषित है । चाप के दोनों सिरों पर एक-एक पद्मासन तीर्थंकर भी उत्कीर्ण हैं । यक्ष-यक्षी आसन तक खड़े प्रदर्शित हैं। यहाँ पन्द्रहवीं शताब्दी की लगभग डेढ़ फुट ऊँची एक चतुर्दशिका या 14 तीर्थंकर प्रतिमा है। उसके मूलनायक चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में छत्रत्रयी, मस्तक के दोनों ओर चवर तथा कीर्तिमुख से विभूषित हैं। मकर-तोरण संयोजित चाप का अलंकरण अत्यन्त आकर्षक है । प्रश्न उठता है कि चतुर्दशिका किस प्रयोजन से बनाई गई होगी। समाधान दो हैं। या तो उसमें अनन्तनाथ सहित चौदह तीर्थंकर प्रदर्शित हैं या फिर यहाँ भरत क्षेत्र के पाँच, ऐरावत क्षेत्र के पाँच और जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में विद्यमान चार तीर्थंकर यहाँ संकेतित हैं। प्रयोजन जो भी हो, मूर्ति अद्भुत है। इस प्रकार की प्रतिमाएं बहुत ही कम देखने को मिलती हैं। मूर्ति की भीतरी चाप में छह-छह पद्मासन तीर्थंकर हैं और एक तीर्थंकर मूर्ति छत्रत्रयी के ऊपर पद्मासन मुद्रा में है । एक और चतुर्दशिका भी यहाँ है। बारहवीं सदी की दो चौबीसी (कांस्य) भी इस बसदि में हैं जो कि कुछ घिस गई हैं। staromos (Shravangunda) श्रवण का अर्थ है श्रमण (दिगम्बर मुनि) और गुण्ड यानी गोल पत्थर अर्थात् वह स्थान जहाँ गोल पत्थर का (पानी में तैरने का) चमत्कार प्रसिद्ध है। यह स्थान धर्मस्थल से 4 कि. मी. दूर स्थित बेलतंगडि तालुक में बंगवाडि से तीन कि. मी. की दूरी पर सघन जंगल में स्थित है। बंगवाडि का भी थोड़ा-सा इतिहास जान लिया जाए। ___ तुलनाडु में बारह जैन राजघराने थे। उनमें बंग-राजाओं का स्थान प्रथम था। उनके राज्य का विस्तार मंगलोर तक था। किन्तु उनका मूल स्थान और मुख्य नगर बंगवाडि था। बंगवाडि का अर्थ है 'बंगों का गाँव' । अब इसे बंगाडि कहते है। यहाँ बंग राजाओं का महल अब भी ध्वस्त अवस्था में है। उनके वंशज भी यहाँ रहते हैं। यहाँ जैन श्रावकों के भी आठ-दस घर हैं। ये राजा अन्त तक अंग्रेज़ों से जूझते रहे, यद्यपि अन्य राजाओं ने अंग्रेजों से सन्धि कर ली थी। आधुनिक बंगाडि सह्याद्रि की सौन्दर्यपूर्ण तलहटी में बसा हुआ है । यहाँ तीन जैनमन्दिर है। उनमें से बड़े मन्दिर के मूलनायक तीर्थंकर शान्तिनाथ हैं । यहाँ जनवरी माह में प्रतिवर्ष रथोत्सव होता है जिसमें आसपास के जैन-जैनेतर काफी संख्या में भाग लेते हैं। इसी रथोत्सव के समय एक दिन श्रवणगुण्ड में भो ‘गुण्डु दर्शन' नामक उत्सव भी होता है। उस दिन एक गोल पत्थर पानी में तैरता है। वैसे आश्चर्यकारी यह घटना अविश्वसनीय लगती है किन्तु इसकी सत्यता से सम्बन्धित जो विवरण एवं अनुश्रुति यहाँ प्रचलित है, वह इस प्रकार है प्राचीनकाल की बात है । यहाँ अनेक श्रमण (जैन मुनि) तपस्या करते थे। उनकी तपस्या से प्रभावित होकर शासन-देवताओं ने उनसे पूछा कि उनके लिए वे क्या करें। वीतरागी मुनियों द्वारा कुछ भी नहीं मांगे जाने पर, जैनधर्म के चमत्कारों में श्रद्धा बढ़ाने की दृष्टि से
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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