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कर्नाटक में जैन धर्म | 21
में समाप्त अपने 'हरिवंशपुराण' के अन्त में इस नरेश का उल्लेख "कृष्णनृप का पुत्र श्रीवल्लभ जो दक्षिणापथ का स्वामी था" इस रूप में किया है।
राजा ध्रुव के बाद गोविन्द तृतीय (793-814 ई.) राजा हुआ था। उसके समय में राज्य का खूब विस्तार भी हआ और उसकी गणना साम्राज्य के रूप में होने लगी थी। उसने कर्नाटक में मान्यखेट (आधुनिक मलखेड) में नई राजधानी और प्राचीर का निर्माण प्रारम्भ कराया था। कुछ विद्वानों के अनुसार, वह जैनधर्म का अनुयायी तो नहीं था किन्तु वह उसके प्रति उदार था। उसने मान्यखेट के जैन मन्दिर के लिए 802 ई. में दान दिया था। 812 ई. उसने में पुनः शिलाग्राम के जैनमन्दिर के लिए अर्ककीर्ति नामक मुनि को जालमंगल नामक ग्राम भेंट में दिया था। इसके समय में महाकवि स्वयम्भ ने भी सम्भवतः मूनि -दीक्षा धारण कर ली थी जो बाद में श्रीपाल मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे।
सम्राट अमोघवर्ष प्रथम (815-877 ई.)-यह शासक जैनधर्म का अनुयायी महान् सम्राट और कवि था। वह बाल्यावस्था में मान्यखेट राजधानी का अभिषिक्त राजा हुआ। उसके जैन सेनापति बंकेयरस और अभिभावक कर्कराज ने न केवल उसके साम्राज्य को सुरक्षित रखा अपितु विद्रोह आदि का दमन करके साम्राज्य में शान्ति बनाए रखी तथा वैभव में भी वृद्धि की । अनेक अरब सौदागरों ने उसके शासन की प्रशंसा की है। सुलेमान नामक सौदागर ने तो यहाँ तक लिखा है कि उसके राज्य में चोरी और ठगी कोई भी नहीं जानता था, सबका धर्म और धार्मिकसम्पत्ति सुरक्षित थी । अन्य राजा लोग अपने-अपने राज्य में स्वतन्त्र रहते हुए भी उसकी प्रभुता स्वीकार करते थे।
सम्राट् अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में 'कविराजमार्ग' नामक एक ग्रन्थ अलंकार और छन्द के सम्बन्ध में लिखा है जिसका आज भी कन्नड़ में आदर के साथ अध्ययन किया जाता है। उसके समय में संस्कृत, प्राकृत. अपभ्रंश और कन्नड़ में विपूल साहित्य का सजन हुआ। उसके बचपन के साथी आचार्य जिनसेन ने जैन-जगत में सुप्रसिद्ध 'आदिपुराण' जैसे विशालकाय पुराण की रचना की, साठ हजार श्लोक में 'जयधवल' जैन ग्रन्थ पूर्ण किया और कालिदास से समता रखने वाले पार्वाभ्युदय' काव्य की रचना की। ये आचार्य ऋषमदेव और भरत का जीवन-चरित्र लिखने के बाद ही स्वर्गस्थ हो गए। उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपराण में शेष तीर्थंकरों का जीवन-चरित लिखा । ग्रंथ के अन्त में उन्होंने लिखा है कि सम्राट् अमोघवर्ष जिनसेनाचार्य को चरणों की वन्दना कर अपने आपको धन्य मानता था। आयुर्वेद, व्याकरण आदि से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ उसी के आश्रय में रचे गए। उसने 'प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका' नामक पुस्तक स्वयं लिखी है जिसके मंगलाचरण में उसने महावीर स्वामी की वंदना की है। उसके कोन्नूर लेख तथा संजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि वह एक श्रावक का जीवन व्यतीत करता था तथा जैन गुरुओं और जैन मन्दिरों को दान दिया करता था । 'रत्नमालिका' से यह भी सूचना मिलती है कि वह अपने अन्त समय में राजपाट को त्याग कर मुनि हो गया था। सम्बन्धित श्लोक है
विवेकात्त्यक्तराज्येन राज्ञ यं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥
अर्थात् विवेक का उदय होने पर राज्य का परित्याग करके राजा अमोघवर्ष ने सुधीजनों को विभाषित करने वाली इस रत्नमालिका नामक कृति की रचना की।