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________________ कर्नाटक में जैन धर्म / 19 सन् 1004 ई. में चोलों ने गंग-राजधानी तलकाड पर आक्रमण किया और उस पर तथा गंगवाड़ी के बहुत से भाग पर अधिकार कर लिया। परवर्ती काल में भी, कुछ विद्वानों के अनुसार, गंगवंश 16वीं शती तक चलता रहा किन्तु होय्सल, चालुक्य, चोल, विजयनगर आदि राज्यों के सामन्तों के रूप में। जैनधर्म-प्रतिपालक गंगवंश कर्नाटक के इतिहास में सबसे दीर्घजीवी राजवंश था। उसकी कीर्ति उस समय और भी अमर हो गई जब गोम्मटेश्वर महामूर्ति की प्रतिष्ठापना हुई। चालुक्य राजवंश कर्नाटक में इस वंश का राज्य दो विभिन्न अवधियों में रहा। लगभग छठी सदी से आठवीं सदी तक इस वंश ने ऐहोल और बादामी (वातापि ) नामक दो स्थानों को क्रमशः राजधानी बनाया। दूसरी अवधि 10वीं से 12वीं सदी की है जबकि चालुक्यवंश की राजधानी कल्याणी (आधुनिक बसव कल्याण) थी। जो भी हो, इतिहास में यह वंश पश्चिमी चालुक्य कहलाता है । पहली अवधि अर्थात् छठी से आठवीं सदी के बीच चालुक्य राजाओं का परिचय ऐहोल और बादामी के प्रसंग में इसी पुस्तक में दिया गया है। फिर भी यह बात पुनः उल्लेखनीय है कि चालुक्यनरेश पुलकेशी द्वितीय के समय उसके आश्रित जैन कवि रविकीर्ति द्वारा 634 ई. में ऐहोल में बनवाया गया जैन मन्दिर (जो कि अब मेगुटी मन्दिर कहलाता है) चाल्युक्य नरेश की स्मृति अपने प्रसिद्ध शिलालेख में सुरक्षित रखे हुए है। यह शिलालेख पुरातत्त्वविदों और संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञों के बीच चर्चित है। इसी लेख से ज्ञात होता है। कि पुलकेशी द्वितीय ने कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन को प्रयत्न करने पर भी दक्षिण भारत में घुसने नहीं दिया था । उसके उत्तराधिकारी मंगेश ने वातापि में राजधानी स्थानान्तरित कर ली थी। उस स्थान पर पहाड़ी के ऊपरी भाग में बना जैन गुफा मन्दिर और उसमें प्रतिष्ठित बाहुबली की सुन्दर मूर्ति कला का एक उत्तम उदारण है । आश्चर्य होता है कि चट्टानों को काटकर सैकड़ों छोटी-बड़ी मूर्तियाँ इस गुफा मन्दिर में बनाने में कितना कौशल अपेक्षित रहा होगा और कितनी राशि व्यय हुई होगी ! 1 अनेक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि चालुक्यनरेश प्रारम्भ से ही जैनधर्म को जैन मन्दिरों को संरक्षण देते रहे हैं । अन्तिम नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगेरे ( लक्ष्मेश्वर ) के 'धवल जिनालय' का जीर्णोद्धार कराया था । कल्याणी को जैन राजधानी के रूप में स्मरण किया जाता है (देखिए 'कल्याणी' प्रसंग ) । तैलप द्वितीय का नाम इतिहास में ही नहीं, साहित्य में भी प्रसिद्ध है । तैलप द्वारा बन्दी बनाये गये धारानगरी के राजा मुंज और तैलप की बहिन मृणालवती की कथा अब लोककथा-सी बन गई है। तैलप प्रसिद्ध कन्नड़ जैन कवि रन्न का भी आश्रयदाता था। इस नरेश ने 972 ई. में राष्ट्रकूट शासकों की राजधानी मान्यखेट पर भीषण आक्रमण, लूटपाट करके उसे अधीन कर लिया था। कोगुलि शिलालेख (992 ई.) से प्रतीत होता है कि वह जैनधर्म का प्रतिपालक था। एक अन्य शिलालेख में, उसने राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले को बसदि काशी एवं अन्य देवालयों को क्षति पहुंचाने वाला घातकी घोषित किया है। बसदि या जैन मन्दिर का उल्लेख भी उसे जैन सिद्ध करने में सहायक है | तैलप के पुत्र सत्याश्रय इरिववेडेंग ( 997-1009) के गुरु द्रविड संघ कुन्कुन्दान्वय के विमलचन्द्र पण्डितदेव थे । इस राजा के बाद जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल ( 1014-1042 ई.) इस वंश का राजा हुआ । वह जैन गुरुओं का आदर करता था उसके समय में आचार्य वादिराज सूरि ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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