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________________ 146 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) जिस काले रंग की वृक्षहीन छोटी पहाड़ी पर एक चतुर्मुख बसदि है, वह सड़क से बिलकुल लगी हुई है। वहाँ नागरी में चतुर्मुख मन्दिर का बोर्ड लगा है । कुछ और दूरी पर जाने पर, मडबिद्री की सडक जहाँ मुड़ती है, वहाँ भी 'जैन धर्मशाला' का बोर्ड नागरी में है। उस पर 'जैन प्रवासी मन्दिर' (नागरी में) और अंग्रेजी में 'Jain Travellers Bungalow' लिखा है । यहाँ से ही बाहुबली की मूर्ति के लिए रास्ता जाता है । मानस्तम्भ नीचे से ही दिखाई देता है। यहीं जैन मठ का बोर्ड भी दिखाई देता है । बस स्टॉप भी जैन मठ के पास है। मठ के पास श्री बाहुबली श्राविकाश्रम और श्री बाहबली मन्दिर हैं। आगे गोमटेश्वर धर्मशाला है। इसमें सात कमरे और दो हॉल हैं । इसका अहाता बड़ा है । स्वच्छ , शान्त वातावरण भी है। मगर गर्मियों में यहाँ ठहरना विशेष कष्टदायक होता है। इसका प्रबन्ध श्री जैन धर्म जीर्णोद्धारक संघ, कारकल (रजि.) द्वारा किया जाता है। नगर में आने-जाने के लिए एकमात्र साधन आटोरिक्शा है। __ कन्नड में कारकल (करिकल्लु) का अर्थ होता है 'काला पत्थर' । यहाँ का ग्रेनाइट पत्थर बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ निर्मित करने के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। हमारे अपने समय में ही दिल्ली की साढ़े तेरह फुट ऊँची महावीर की पद्मासन मूर्ति, फीरोजाबाद और धर्मस्थल की विशाल बाहुबली प्रतिमाएँ यहीं से बनकर गई हैं। इस प्रकार की शिलाएँ अन्यत्र दुर्लभ हैं। कारकल जहाँ जैन धर्मानुयायियों के लिए एक तीर्थ-स्थान है वहीं जैनेतर जनता के लिए यह इतिहास और कला का एक अनुपम क्षेत्र है। इतिहास प्राचीन काल से ही कारकल एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा है, यह एक समृद्ध व्यापारिक नगर तो था ही। इसके संक्षिप्त इतिहास पर दृष्टिपात करना उचित होगा। हुमचा के प्रसंग में यह कहा जा चुका है कि अपने नरभक्षी पिता और विमाता के अत्याचारों से पीड़ित जैन धर्मानुयायी राजकुमार जिनदत्त ने उत्तर मथुरा से दक्षिण में आकर सान्तर नामक राजवंश की नींव पद्मावती देवी की कृपा से डाली। उसके उत्तराधिकारी जैनधर्म के प्रतिपालक ही रहे । किन्तु राजधानी हुमचा से कलस और फिर वहाँ से कारकल स्थानान्तरित हो गई। बारहवीं सदी के अन्त में इस वंश के शासकों पर लिंगायत मत का भी प्रभाव हो गया था, ऐसा कुछ लोगों का मत है। किन्तु कारकल के अनेक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि कारकल में लगभग 500 वर्ष (तेरहवीं से सत्रहवीं सदी) तक शासन करने वाले सान्तर राजा मुख्य रूप से जैनधर्म के ही अनुयायी बने रहे, भले ही उन्होंने अन्य धर्मों के प्रति उदारता क्यों न दिखाई हो। ऐसी मान्यता है कि पद्मावती देवी ने एक बार 'भैरवी' का रूप भी धारण कर इन शासकों की सहायता की थी। इस कारण इस वंश के शासकों के नाम के साथ भैरव का भी प्रयोग होने लगा। ये शासक होयसल, विजयनगर और इक्केरि राजाओं के सामन्त थे। तेरहवीं शताब्दी की बात है, उस समय यहाँ जैनों के लगभग 700 घर थे, (अब कारकल में 50-60 जैन परिवार ही हैं)। सभी व्यापार आदि करके सरल परिणामी जीवन व्यतीत करते थे। किन्तु यहाँ सात ग्रामों का 'एलनाड कापिट हेग्गडे' नामक जो शासक था वह जैनों एवं अन्य प्रजाओं पर अत्याचार करता था। उसी समय हुमचा के जैन शासक मूडबिद्री की यात्रा पर आये
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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