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________________ कर्नाटक में जैन धर्म | 17 गंग-वंश कर्नाटक में जैनधर्म के इतिहास में इस वंश का स्थान सबसे ऊँचा है। इस वंश की स्थापना ही जैनाचार्य सहनन्दी ने की थी। एक शिलालेख में इन आचार्य को 'गंगराज्य-समुद्धरण' कहा गया है। शिलालेखानुसार उज्जयिनी के राजा ने जब अहिच्छत्र के राजा पद्मनाभ पर आक्रमण किया तो राजा ने अपने दो पुत्रों दडिग और माधव को दक्षिण की ओर भेज दिया। वे कर्नाटक के पेरूर नामक स्थान में पहुँचे । उस समय वहाँ विद्यमान सिंहनन्दी ने उनमें राजपुरुषोचित गुण देखे । बल-परीक्षा के समय माधव ने तलवार से एक पाषाणस्तम्भ के टुकड़े कर दिए । आचार्य ने उन्हें शिक्षा दी, मुकुट पहनाया और अपनी पिच्छी का चिह्न उन्हें दिया। उन्हें 'जिनधर्म से विमुख नहीं होने तथा कुछ दुर्गुणों से बचने पर ही कुल चलेगा' यह चेतावनी भी दी। बताया जाता है कि यह घटना 188 ई. अथवा तीसरी सदी की है। इस वंश ने कर्नाटक में लगभग एक हजार वर्षों तक शासन किया। उसकी पहली राजधानी कुवलाल (आधुनिक कोलार), तलकाड (कावेरी नदी के किनारे) तथा र (मण्णे) रही । इतिहास में यह तलकाड (तालवनपुर) का गंगवंश नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। इनके द्वारा शासित प्रदेश 'गंगवाडी' कहलाता था और उसमें मैसूर के आसपास का बहुत बडा भाग शामिल था। कर्नाटक का यही राजवंश ऐसा है जिसने कर्नाटक में सबसे लम्बी अवधि-ईसा की चौथी सदी से ग्यारहवीं सदी तक-राज्य किया है। गंगवंश के समय में जैन धर्म की स्थिति का आकलन करते हुए श्री टी. एन. रामचन्द्रन ने लिखा है, जैन धर्म का स्वर्णयुग साधारणतया “दक्षिण भारत में और विशेषकर कर्नाटक में गंगवंश के शासकों के समय में था, जिन्होंने जैन धर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में स्वीकार किया था।" उनके इस कथन में अतिशयोक्ति नहीं जान पडती । किन्तु यह उक्ति इस वंश के जैन धर्म के प्रचार सम्बन्धी प्रयत्नों का सारांश ही है। कुछ प्रमुख गंगवंशी राजाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ जैन धर्म के प्रसंग में दिया जा रहा है। गंगवंश का प्रथम नरेश माधव था जो कि कोंगुणिवर्म प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है । उसने मण्डलि नामक स्थान पर काष्ठ का एक जैन मन्दिर बनवाया था और एक जैनपीठ की भी स्थापना की थी। इसी वंश के अविनीत गंग के विषय में यह कहा जाता है कि तीर्थंकर प्रतिमा सिर पर रखकर उसने बाढ़ से उफनती हई कावेरी नदी को पार किया था। उसने अपने पुत्र दुविनीत गंग की शिक्षा आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद के सान्निध्य में दिलाई थी तथा लालवन नगर की जैन बसदि के लिए तथा अन्य बसदियों आदि के लिए विविध दान दिए थे। विनीत का काल 481 ई. से 522 ई. के लगभग माना जाता है। यह पराक्रमी होने के साथ-हीसाथ परम जिनभक्त और विद्यारसिक भी था। उसने कोगलि (कर्नाटक) में चेन्न पार्श्वनाथ नामक बसदि का निर्माण कराया था । देवनन्दि पूज्यपाद उसके गुरु थे । प्रसिद्ध संस्कृत कवि भारवि भी उसके दरबार में रहे। उसने पूज्यपाद द्वारा रचित पाणिनिव्याकरण की टीका का कन्नड़ में अनुवाद भी किया था । उसके समय में तलकाड एक प्रमुख जैन-विद्या केन्द्र था। श्री रामास्वामी आयंगार का मत है कि दुविनीत के उत्तराधिकारी मुष्कर के समय में "जैनधर्म गंगवांडी का राष्ट्रधर्म था।" उसने बल्लारी के समीप एक जिनालय का भी निर्माण कराया था। इस वंश की अगली कड़ी में शिवमार प्रथम नामक राजा (550 ई. में) हुआ है जो जिनेन्द्र भगवान का परम भक्त था। उसके गुरु चन्द्रसेनाचार्य थे और उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था तथा दान दिया था। श्रीपुरुष मुत्तरस (726-776 ई.) नामक गंगनरेश ने अनेक जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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