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________________ 64 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं (कर्नाटक) कर पुरातत्त्व सामग्री की रक्षा के लिए प्रयत्नशील है । यह भी कहा जाता है कि अपने समय के इस प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर में 101 मन्दिर और बावड़ियाँ थीं । अब भी लगभग 50 मन्दिरों के भग्नावशेष यहाँ पाए गए हैं । लक्कुण्डि और उसके आसपास की बहुत-सी सुन्दर जैन मूर्तियाँ इस समय धारवाड़ विश्वविद्यालय के कन्नड़ अनुसंधान संस्थान ( कन्नड़ रिसर्च इन्स्टीट्यूट) के संग्रहालय में रख दी गई हैं (उदाहरण के लिए देखें चित्र क्र. 21 ) । जैन मूर्तिकला, मन्दिर शिल्प और जैन कन्नड़ साहित्य की दृष्टि से यह स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और पर्यटन के सर्वथा उपयुक्त है। चूंकि अब यह एक गाँव है अतः ठहरने की सुविधा नहीं है । ब्रह्मजिनालय ब्रह्मजिनालय का निर्माण एक शिलालेख के अनुसार दानशीला अत्तिमब्बे ने 1007 ई. कराया था । इस गाँव का यह मन्दिर सबसे प्राचीन है और सबसे बड़ा है । इसकी लम्बाई 93 फीट चौड़ाई 35 फीट और शिखर तक की ऊँचाई 42 फीट है (देखें चित्र क्र. 22 ) । पुरातत्त्व की दृष्टि से भी 'ब्रह्मजिनालय' का अधिक महत्त्व है । इसके निर्माण से पहले ऐहोल और बादामी जैसे स्थानों के मन्दिरों का निर्माण बलुआ पत्थर के बड़े और मोटे शिलाखण्डों से हुआ करता था । किन्तु लक्कुण्डि के इस मन्दिर के निर्माण में धारवाड़ जिले की ही शिलाशंकर नामक खदान से प्राप्त कुछ हरे-नीले रंग के नरम और अनेक स्तरों वाले पत्थर का प्रयोग किया गया है। इसका लाभ यह हुआ कि स्तम्भ पतले, सुन्दर नक्काशीदार और इच्छित आकार के बनाये जा सके। साथ ही, शिल्पी ने अपनी छैनी से सूक्ष्म अंकन कर दिखाया। इस प्रकार की नई शैली होय्सल शैली की पूर्वगामिनी बनी । वास्तुविदों का अनुमान है कि मन्दिर के नक्काशीदार भाग खदान में ही तराशे गये और मन्दिर में लाकर लगा दिए गये । इस प्रकार बलुआ पत्थर के युग का अन्त हुआ । यह मन्दिर द्रविड शैली का है। शिखर तक इसमें पाँच तल बनाए गये हैं । मुख्य गर्भगृह के ऊपर भी एक और गर्भगृह रहा होगा जो कि अब बन्द कर दिया गया है। इसका शिखर क्रमशः छोटा होता चला गया है और ऊपर तक पहुँचते-पहुँचते चौकोर हो गया है। मन्दिर में प्रवेश के लिए जो सीढ़ियाँ हैं उनके लिए बनी दीवार पर कमलों का अंकन है। इन सीढ़ियों से होकर एक खुले मण्डप में प्रवेश करना होता है । शायद यह बाद में जोड़ा गया है । इस मण्डप में 33 स्तम्भ हैं जिन पर सूक्ष्म नक्काशी की गई है। इसके बाहर एक शिलालेख पड़ा हुआ है। पूर्व दिशा में स्थित इस मण्डप से मन्दिर में प्रवेश किया जाता है । प्रवेशद्वार पर गजलक्ष्मी का सुन्दर अंकन है । मन्दिर के अन्दर एक नवरंग मण्डप है जो कि लगभग 21 वर्ग फीट का एक वर्गाकार मण्डप है । इसमें ब्रह्म की एक चतुर्मुख प्रतिमा दर्शनीय है । सरस्वती की एक छोटी किन्तु अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा भी है। सरस्वती प्रतिमाओं के अंकन में यह एक अपना ही महत्त्व रखती है । सरस्वती त्रिभंग मुद्रा में है और उसके सिर के ऊपर एक लघु तीर्थंकर मूर्ति है । दोनों ओर चँवरधारिणी भी हैं । यहीं पद्मावती की मूर्ति भी प्रतिष्ठित है । और पंचपरमेष्ठी एवं चौबीसी की कांस्य प्रतिमाएँ विराजमान हैं जिन पर स्तम्भोंयुक्त चाप एवं मकर-तोरण इनकी शोभा बढ़ाते हैं । इस मण्डप के स्तम्भ अनुपम उत्कीर्णन से युक्त हैं किन्तु अब कुछ स्तम्भों की पॉलिश या चमक खराब हो गई है ।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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