SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) 1 से भी कम वापस आ पाये हैं, शेष खेत रहे । जो आये हैं वे सफल होकर ही लौटे हैं - परमारों को दूर तक उनकी सीमा में खदेड़कर ही लौटे हैं, सो भी विशेषकर इसलिए कि युद्ध में महादण्डनायक नागदेव, जो इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे, गम्भीर रूप से आहत हो गये थे । यह मालूम हुआ कि वह अभी जीवित तो हैं किन्तु दशा चिन्ताजनक है, इस समय मूच्छित हैं, और यह समाचार भी अभी मिला है कि शत्रुओं को भी चालुक्यों की इस विकट परिस्थिति भान हो गया है, और वह पुनः इनकी टोह में वापस आ रहे हैं । इन समाचारों से चालुक्य शिविर में जो उद्विग्नता एवं चिन्ता व्याप गयी वह सहज अनुमान की जा सकती है । विविध सैनिक विषयों के विशेषज्ञों तथा अनुभवी वृद्धजनों द्वारा नाना उपाय सोचे जाने लगे, नानाविध प्रयत्न भी उस पार वालों को इस पार लाने या उन्हें आवश्यक सहायता पहुँचाने के लिए किये जाने लगे । किन्तु क्षुब्ध प्रकृति की भयंकर विरोधी शक्तियों के विरुद्ध कोई उपाय कारगर नहीं हो रहा था । विवशता मुँह बाये खड़ी थी । समय था नहीं, जो होना था, तत्काल होना था । इतने में महाराज ने और पार्षदों ने देखा कि एक तेजस्विनी मूर्ति शिविर के अन्तःपुरकक्ष से निकल धीर गति के साथ उन्हीं की ओर चली आ रही है । सब स्तब्ध थे । उसने महाराज को, अपने श्वसुर को और पिता को प्रणाम किया, और उसी धीर गति के साथ वीरबाला अत्तिमब्बरसि शिविर के महाद्वार से बाहर निकलकर एक उच्च स्थान पर जा खड़ी हुई । लोगों में हलचल हुई, किन्हीं ने कुछ कहना चाहा, किन्तु बोल न निकला । उसके तेजोप्रभाव से अभिभूत महाराज के साथ समस्त दरवारी जन भी उसके पीछे-पीछे बाहर निकल आये - जो मार्ग में या सामने पड़े वे आदरपूर्वक इधर-उधर हटते चले गये । महासती एकाकिनी, निश्चल खड़ी थी । उसके सुदीप्त मुखमण्डल एवं सम्पूर्ण देह से एक अलौकिक तेज फूट रहा था । एक दृष्टि उसने महाविकराल उमड़ते महानद पर डाली, जिसपर से फिसलती हुई वह दृष्टि उस पार व्याकुल हताश खड़े सैनिकों पर गयी और लौट आयी । परम जिनेन्द्रभक्त महासती ने त्रियोग एकाग्र कर इष्टदेव का स्मरण किया और उसकी धीर - गम्भीर वाणी सबने सुनी"यदि मेरी जिनभक्ति अविचल है, यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म अखण्ड है, और यदि मेरी सत्यनिष्ठा अकम्पनीय है तो, हे महानदी गोदावरी ! मैं तुझे आज्ञा देती हूँ कि तेरा प्रवाह उतने समय के लिए सर्वथा स्थिर हो जाये जबतक कि हमारे स्वजन उस पार से इस पार सुरक्षित नहीं चले आते !” उभयतटवर्ती सहस्रों नेत्रों ने देखा वह अद्भुत, अभूतपूर्व चमत्कार ! सच ही, पलक मारते ही महानदी गोदावरी ने सौम्य रूप धारण कर लिया, जल एकदम घटकर तल से जा लगा, नदी का प्रवाह स्थिर हो गया । हर्ष, उल्लास और जयध्वनि से दिग् - दिगन्त व्याप्त हो गया । कुछ ही देर पश्चात्, शिविर के एक कक्ष में मर्मान्तक घात से आहत वीर नागदेव अपनी प्रिया की गोद में सिर रखे, प्रसन्न हृदय से अन्तिम श्वासें ले रहा था । कक्ष के बाहर स्वजनपरिजन समस्त पुन: आशा-निराशा के बीच झूल रहे थे । गोदावरी फिर से अपने प्रचण्ड रूप आ चुकी थी और उस पार खड़ी शत्रु की सेना हाथ मल रही थी । वीर नागदेव ने वीरगति प्राप्त की । पतिवियुक्ता सती ने अपूर्व धैर्य के साथ स्वयं को सँभाला और एक आदर्श, उदासीन, धर्मात्मा श्राविका के रूप में घर में रहकर ही शेष जीवन व्यतीत किया । स्वर्ण एवं 1
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy