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प्राक्कथन
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लक होता था, जो संघका व्यय उठाता था । संघमें विविध वाहन होते थे-हाथी, घोड़े, रथ, गाड़ी आदि। संघके साथ मुनि भी जाते थे। उस समय यात्रामें कई-कई माह लग जाते थे। महाराज अरविन्द जब मुनि बन गये और जब वे एक बार एक संघके साथ सम्मेद-शिखरकी यात्राके लिए जा रहे थे, अचानक एक जंगली हाथी आक्रमणके उद्देश्यसे उनपर आ झपटा । अरविन्द अवधि-ज्ञानी थे। उन्होंने जाना कि यह तो मेरे मन्त्री मरुभूतिका जीव है। अतः उन्होंने उस हाथीको सम्बोधित करके उपदेश दिया। हाथीने अणुव्रत धारण कर लिये और प्रासुक जल और सूखे पत्तोंपर निर्वाह करने लगा। वही जीव बादमें पार्श्वनाथ तीर्थकर बना । इस प्रकारका कथन पौराणिक साहित्यमें मिलता है।
भैया भगवतीदास कृत 'अर्गलपुर जिन-वन्दना' नामक स्तोत्र है। उससे ज्ञात होता है कि रामपुरके श्रावकोंके साथ भैया भगवतीदास यात्रा करते हुए अर्गलपुर (आगरा) आये थे। उन्होंने अपने स्तोत्र में आगराके तत्कालीन जैन मन्दिरोंका परिचय दिया है । इससे यह भी पता चलता है कि उस समय जैन समाजमें कितना अधिक साधर्मी वात्सल्य था। तब यात्रा संघके लोग किसी मन्दिरमें दर्शनार्थ जाते थे तो उस मुहल्लेके जैन बन्धु संघके लोगोंको देखकर बड़े प्रसन्न होते थे और उनका भोजन, पानसे सत्कार करते थे। दुख है कि वर्तमानमें साधर्मी वात्सल्य नहीं रहा और न यात्रा-संघोंके स्वागत-सत्कारका ही वह रूप रहा ।
यात्रा संघोंके अनेक उल्लेख विभिन्न ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों आदिमें भी मिलते हैं।
तीर्थ यात्रा कैसे करें ?
वर्तमानमें यातायातके साधनोंकी बहुलता और सुलभताके कारण यात्रा करना पहले-जैसा न तो कष्टसाध्य रहा है और न अधिक समय-साध्य । यात्रा-संघोंमें यात्रा करनेके पक्ष-विपक्षमें तर्क दिये जा सकते हैं । किन्तु एकाकीकी अपेक्षा यात्रा-संघोंके साथ यात्रा करनेका सबसे बड़ा लाभ यह है कि अनेक परिचित साथियोंके साथ यात्राके कष्ट कम अनुभव होते हैं, समय पूजन, दर्शन, शास्त्र-चर्चा आदिमें निकल जाता है; व्यय भी कम पड़ता है। रेलकी अपेक्षा मोटर-बसों द्वारा यात्रा करने में कुछ सुविधा रहती है।
जब यात्रा करनेका निश्चय कर लें तो उसी समयसे अपना मन भगवान्की भक्तिमें लगाना चाहिए और जिस समय घरसे रवाना हों, उसी समयसे घर-गृहस्थीका मोह छोड़ देना चाहिए, व्यापारको चिन्ता छोड़ देनी चाहिए तथा अन्य सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त हो जाना चाहिए।
यात्रामें सामान यथासम्भव कम ही रखना चाहिए किन्तु आवश्यक वस्तुएँ नहीं छोड़नी चाहिए। उदाहरणके रूपमें यदि सर्दी में यात्रा करनी हो तो ओढ़ने-बिछानेके रुईवाले कपड़े ( गद्दा और रजाई ) तथा पहननेके गर्म कपड़े अवश्य अपने साथमें रखने चाहिए । विशेषतः गुजरात, मद्रास आदि प्रान्तोंके यात्रियोंक उत्तर प्रदेश, बिहार आदि प्रदेशोंके तीर्थों की यात्रा करते समय इस बातको ध्यानमें रखना चाहिए । कपड़ों के अलावा स्टोव, आवश्यक बरतन और कुछ दिनोंके लिए दाल, मसाला, आटा आदि भी साथमें ले जाना चाहिए।
मैदानी इलाकोंके तीर्थों की यात्रा किसी भी मौसममें की जा सकती है। जिन दिनों अधिक गर्मी पड़ती और वर्षा होती है, उन्हें बचाना चाहिए जिससे असुविधा अधिक न हो।
तीर्थक्षेत्रपर पहुँचनेपर यह ध्यान रखना चाहिए कि तीर्थक्षेत्र पवित्र होते हैं। उनकी पवित्रताको किसी प्रकार आन्तरिक और बाह्य रूपसे क्षति नहीं पहुँचनी चाहिए। ज्ञानार्णवमें आचार्य शुभचन्द्रने
कहा है
"जनसंसर्गवा चित्तपरिस्पन्दमनोभ्रमाः । उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानिजनमतस्त्यजेत् ॥" अर्थात् अधिक मनुष्योंका जहां संसर्ग होता है, वहां मन और वाणीमें चंचलता आ जाती है और मनमें विभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । यही सारे अनर्थोंकी जड़ है । अतः ज्ञानी पुरुषोंको अधिक जन-संसर्ग छोड़ देना चाहिए ।