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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तीर्थों के भेद
दिगम्बर जैन परम्परामें संस्कृत निर्वाण-भक्ति और प्राकृत निर्वाण-काण्ड प्रचलित हैं। अनुश्रुतिके अनुसार ऐसा मानते हैं कि प्राकृत निर्वाण-काण्ड ( भक्ति) आचार्य कुन्दकुन्दकी रचना है। तथा संस्कृत निर्वाण-भक्ति आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित कही जाती है । इस अनुश्रुतिका आधार सम्भवतः क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं । उन्होंने लिखा है कि संस्कृत भक्तिपाठ पादपूज्य स्वामी विरचित है। प्राकृत निर्वाण-भक्तिके दो खण्ड है-एक निर्वाण-काण्ड और दूसरा निर्वाणेतर-काण्ड । निर्वाण-काण्डमें १९ निर्वाणक्षेत्रोंका विवरण प्रस्तुत करके शेष मुनियोंके जो निर्वाण क्षेत्र है उनके नामोल्लेख न करके सबकी वन्दना की गयी है । निर्वाणेतर काण्डमें कुछ कल्याणक स्थान और अतिशय क्षेत्र दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत निर्वाण-भक्तिमें तीर्थभूमियोंको इस भेद कल्पनासे ही दिगम्बर समाजमें तीन प्रकारके तीर्थ-क्षेत्र प्रचलित हो गये-सिद्ध क्षेत्र (निर्वाण क्षेत्र ), कल्याणक क्षेत्र और अतिशय क्षेत्र ।
संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें प्रारम्भके बीस श्लोकोंमें भगवान् वर्धमानका स्तोत्र है। उसके पश्चात् बारह पद्योंमें २५ निर्वाण क्षेत्रोंका वर्णन है । वास्तवमें यह भक्तिपाठ एक नहीं है। प्रारम्भमें बीस श्लोकोंमें जो वर्धमान स्तोत्र है वह स्वतन्त्र स्तोत्र है। उसका निर्वाण भक्तिसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह इसके पढ़नेसे ही स्पष्ट हो जाता है । द्वितीय पद्यमें स्तुतिकार सन्मतिका पाँच कल्याणकोंके द्वारा स्तवन करनेकी प्रतिज्ञा करता है और बीसवें श्लोकमें इस स्तोत्रके पाठका फल बताता है । यहाँ यह स्तोत्र समाप्त हो जाता है । फिर इक्कीसवें पद्यमें अर्हन्तों और गणधरोंकी निर्वाण-भूमियोंकी स्तुति करनेकी प्रतिज्ञा करता है और बत्तीसवें श्लोकमें उनका समापन करता है । जो भी हो, संस्कृत निर्वाण-भक्तिके रचयिताने प्राकृत निर्वाण-भक्तिकारकी तरह तीर्थ-क्षेत्रोंके भेद नहीं किये । सम्भवतः उन्हें यह अभिप्रेत भी नहीं था। उनका उद्देश्य तो निर्वाणक्षेत्रोंकी स्तुति करना था।
इन दो भक्तिपाठोंके अतिरिक्त तीर्थक्षेत्रोंसे सम्बन्धित कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ दिगम्बर परम्परामें उपलब्ध नहीं है । जो है, वे प्रायः १६वीं, १७वीं शताब्दीके बादके है ।
किन्तु दिगम्बर समाजमें उक्त तीन ही प्रकारके तीर्थक्षेत्रोंकी मान्यताका प्रचलन रहा है-(१) निर्वाण क्षेत्र, (२) कल्याणक क्षेत्र और (३) अतिशय क्षेत्र ।
निर्वाण क्षेत्र-ये वे क्षेत्र कहलाते हैं, जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं तपस्वी मुनिराजका निर्वाण हुआ हो । संसारमें शास्त्रोंका उपदेश, व्रत-चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण-प्राप्तिके लिए है। यही चरम और परम पुरुषार्थ है । अतः जिस स्थानपर निर्वाण होता है, उस स्थानपर इन्द और देव पूजाको आते हैं। अन्य तीर्थोंकी अपेक्षा निर्वाण क्षेत्रोंका महत्त्व अधिक होता है । इसलिए निर्वाण-क्षेत्र के प्रति भक्त जनताकी श्रद्धा अधिक रहती है । जहाँ तीर्थंकरोंका निर्वाण होता है, उस स्थानपर सौधर्म इन्द्र चिह्न लगा देता है। उसी स्थानपर भक्त लोग उन तीर्थंकर भगवान्के चरण-चिह्न स्थापित कर देते हैं। आचार्य समन्तभद्रने स्वयम्भूस्तोत्रमें भगवान् नेमिनाथकी स्तुति करते हुए बताया है कि ऊर्जयन्त (गिरनार ) पर्वतपर इन्द्रने भगवान् नेमिनाथके चरण-चिह्न उत्कीर्ण किये। - तीर्थंकरोंके निर्वाण-क्षेत्र कुल पांच हैं-कैलास, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्त और सम्मेदशिखर । पूर्वके चार क्षेत्रोंपर क्रमशः ऋषभदेव, वासुपूज्य, महावीर और नेमिनाथ मुक्त हुए। शेष बीस तीर्थंकरोंने सम्मेदशिखरसे मुक्ति प्राप्त की । इन पाँच निर्वाण-क्षेत्रोंके अतिरिक्त अन्य मुनियोंकी निर्वाणभूमियाँ हैं, जिनमें से कुछके नाम निर्वाण-भक्तिमें दिये हुए हैं।
कल्याणक क्षेत्र-ये वे क्षेत्र हैं, जहां किसी तीर्थकरका गर्भ, जन्म, अभिनिष्क्रमण ( दीक्षा) और केवलज्ञान कल्याणक हुआ है । जैसे मिथिलापुरी, भद्रिकापुरी, हस्तिनापुर आदि ।