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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ -युक्त्यनुशासन ६२ अर्थात् “आपका यह तीर्थ सर्वोदय (सबका कल्याण करनेवाला) है। जिसमें सामान्य-विशेष, द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक, अस्ति-नास्ति रूप सभी धर्म गौण-मुख्य रूपसे रहते हैं, ये सभी धर्म परस्पर सापेक्ष है, अन्यथा द्रव्यमें कोई धर्म या गुण रह नहीं पायेगा। तथा यह सभीकी आपत्तियोंको दूर करनेवाला है और किसी मिथ्यापवादसे इसका खण्डन नहीं हो सकता । अतः आपका यह तीर्थ सर्वोदय-तीर्थ कहलाता है।" यह तीर्थ परमागम रूप है, जिसे धर्म भी कहा जा सकता है। बृहत्स्वयंभू स्तोत्रमें भगवान् मल्लिनाथकी स्तुति करते हुए आचार्य समन्तभद्रने उनके तीर्थको जन्ममरण रूप समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंके लिए प्रमुख तरण-पथ ( पार होनेका उपाय ) बताया है तीर्थमपि स्वं जननसमुद्र त्रासितसत्त्वोत्तरणपथोऽगम् ॥१०९ पुष्पदन्त-भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागम ( भाग ८, पृ. ९१ ) में तीर्थंकरको धर्म-तीर्थका कर्ता बताया है । आदिपुराणमें श्रेयान्सकुमारको दान-तीर्थका कर्ता बताया है। आदिपुराणमें ( २।३९) मोक्षप्राप्तिके उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रको तीर्थ बताया है। आवश्यक नियुक्तिमें चातुर्वर्ण अर्थात् मुनि, अजिका, श्रावक, श्राविका इस चतुर्विध संघ अथवा चतुर्वर्णको तीर्थ माना है । इनमें भी गणधरों और उनमें भी मुख्य गणधरको मुख्य तीर्थ माना है और मुख्य गणधर ही तीर्थंकरोंके सूत्र रूप उपदेशको विस्तार देकर भव्यजनोंको समझाते हैं, जिससे वे अपना कल्याण करते हैं। कल्पसूत्र में इसका समर्थन किया गया है। तीर्थ और क्षेत्र-मंगल कुछ प्राचीन जैनाचार्योंने तीर्थके स्थानपर 'क्षेत्र-मंगल' शब्दका प्रयोग किया है। षट्खण्डागम (प्रथम खण्ड, पृ. २८ ) में क्षेत्र-मंगलके सम्बन्धमें इस प्रकार विवरण दिया गया है तत्र क्षेत्रमंगलं गुणपरिणतासन-परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणक्षेत्रादिः । तस्योदाहरणम्ऊर्जयन्त-चम्पा-पावानगरादिः । अर्धाष्टारत्न्यादि-पञ्चविंशत्युत्तरपञ्च-धनुःशतप्रमाणशरीरस्थितकैवल्याद्यवष्टब्धाकाशदेशा वा, लोकमात्रात्मप्रदेशलॊकपूरणापूरितविश्वलोकप्रदेशा वा । अर्थात् गुण-परिणत-आसन क्षेत्र अर्थात् जहाँपर योगासन, वीरासन इत्यादि अनेक आसनोंसे तदनुकूल अनेक प्रकारके योगाभ्यास, जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों ऐसा क्षेत्र, परिनिष्क्रमण क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र और निर्वाण क्षेत्र आदिको क्षेत्र-मंगल कहते हैं। इसके उदाहरण ऊर्जयन्त (गिरनार ), चम्पा, पावा आदि नगर क्षेत्र हैं। अथवा साढ़े तीन हाथसे लेकर पांच सौ पचीस धनुष तकके शरीरमें स्थित और केवलज्ञानादिसे व्याप्त आकाश प्रदेशोंको क्षेत्र-मंगल कहते हैं। अथवा लोक प्रमाण आत्म-प्रदेशोंसे लोकपूरणसमुद्घात दशामें व्याप्त किये गये समस्त लोकके प्रदेशोंको क्षेत्र-मंगल कहते हैं । बिलकुल इसी आशयकी ४ गाथाएँ आचार्य यतिवृषभने तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थमें (प्रथम अधिकार गाथा २१-२४ ) निबद्ध की हैं और उन्होंने कल्याणक क्षेत्रोंको क्षेत्र-मंगलकी संज्ञा दी है। गोम्मटसारमें बताया हैक्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमहदादीनाम् । इस प्रकार हम देखते हैं कि तीर्थ शब्दके आशयमें ही क्षेत्र-मंगल शब्दका प्रयोग मिलता है। यदि अन्तर है तो इतना कि तीर्थ शब्द व्यापक है। तीर्थ शब्दसे उन सबका व्यवहार होता है, जो पार करने में
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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