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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ केवल-ज्ञान प्राप्त किया और आयुके अन्तमें अघातिया कर्मोंका नाश करके वे सिद्धालयमें जा विराजे । -हरिषेण कथाकोष-कथा १३३ ।। (८) सुभद्रा सतीके शीलकी परीक्षा चम्पामें ही हुई थी। कोटिभट श्रीपाल यहींका राजा था। पुराणप्रसिद्ध अनन्तमती यहीं हुई थी। महावीरके समकालीन धर्मरुचि केवली गृहस्थ दशामें यहाँके शासक थे। (९) पाण्डवोंकी माता कुन्ती जब कुमारी थी, उस समय पाण्डु एक बार द्वारका गये। वहाँ कुमारी कुन्तीको देखते ही वे मोहित हो गये। कुन्तीकी भी दशा ऐसी ही थी। दोनोंने गन्धर्व-विवाह कर लिया और छिपकर वे मिलते रहे। परिणाम यह हआ कि कुन्तीको गर्भ रह गया । गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। जब बालक उत्पन्न हुआ तो लोक-लाजके कारण कुन्तीने बच्चेको कम्बलमें लपेटकर एकान्तमें छोड़ दिया। बड़ा होनेपर वह महारथी कर्ण कहलाया जिसने अंगदेशको जीतकर चम्पाको अपनी राजधानी बनाया। कर्णकी दानवीरताको लेकर अनेक आख्यान प्राचीन वाङ्मयमें मिलते हैं। -हरिवंशपुराण, ५५वाँ सर्ग, श्लोक ८७-९५ (१०) राजा करकण्डुका भी सम्बन्ध चम्पासे रहा था। वह चम्पाके नरेश दन्तिवाहनका पुत्र था। किन्तु नियतिके चक्रमें पड़कर वह श्मशानमें उत्पन्न हुआ। घटना यों घटित हुई। दन्तिवाहनकी महारानी पद्मावतीको दोहला हुआ कि मैं महाराजके साथ पुरुष-वेषमें वर्षाके समय हाथीपर बैठकर वन-विहार करूँ। राजाने रानीकी इच्छानुसार व्यवस्था की। जब राजा और रानी हाथीपर बैठकर वन-विहार कर रहे थे तो ठण्डी-ठण्डी हवा लगते ही हाथी मस्त हो उठा और भागा। महावत और राजा तो किसी वक्षकी झकी हई शाखाको पकडकर लटक गये और बच गये। किन्तु महारानी हाथीसे नहीं उतर सकी। जब हाथी भागते-भागते थक गया, तब वह एक तालाबमें घुसा । मौका देखकर महारानी हाथीसे कूद पड़ी। वह निकटवर्ती श्मशानमें होकर जा रही थी, तभी प्रसववेदना हुई और वहीं बालकको जन्म दिया। वहाँ एक शापग्रस्त विद्याधर नरेश अपनी स्त्रीके साथ श्मशानमें चाण्डालके वेषमें रहता था। उसने महारानीसे वह बालक ले लिया और उसका लालन-पालन करने लगा। उसने बालकका नाम करकण्डु रखा। करकण्डुके प्रभावसे बादमें वह विद्याधर दम्पति शापमुक्त हो गया। करकण्डु बड़ा हो गया। अचानक एक दिन दन्तिपुरके राजाका स्वर्गवास हो गया। वह निःसन्तान था। अतः मन्त्रियोंने एक हाथीको घड़ा भरकर दिया। यह निश्चय किया गया कि हाथी जिस व्यक्तिका अभिषेक कर दे, उसीको राजा बना दिया जाये। हाथीने करकण्डुका अभिषेक किया। फलतः वह राजा बना दिया गया । राजा बननेके बाद उसने अनेक राजाओंको जीतकर अपने राज्यका खब विस्तार किया। चम्पानरेश दन्तिवाहनको उसका यह उत्कर्ष सहन नहीं हुआ। उसने करकण्डुके पास दूत भेजा कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो अन्यथा युद्ध करो। करकण्डुने युद्ध स्वीकार किया। दोनों आमने-सामने आ डटे। तब पद्मावतीने आकर युद्ध रोका और पिता-पुत्रका परिचय कराया। बिछड़े हुए पति-पत्नी और पुत्र मिले। दन्तिवाहनने चम्पाका राज्य अपने पुत्र करकण्डुको दे दिया। अब करकण्डका राज्य अंगसे लेकर वंग, कलिंग, आन्ध्र, पाण्डय तक विस्तृत हो गया। उसने दिग्विजयके समय तेरपुरमें अग्गलदेवका विशाल मन्दिर बनवाया और रत्नमय पार्श्वनाथकी प्रतिमा विराजमान करायी। यह प्रतिमा तेरपरके निकटवर्ती धाराशिव गाँवके बाहर एक स्थान खुदवानेपर मिली थी, जहाँ एक हाथी प्रतिदिन सैंडमें जल और कमल लाता था और उसे चढ़ाता था।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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