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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तू रोहिणी व्रत कर। इसके प्रभावसे तेरा संकट दूर होगा। इसने रोहिणी व्रत किया। उसीका फल है कि इसे इतना रूप और सुख मिला है।" यह सुनकर सबको बड़ी शिक्षा मिली।
एक बार भगवान् वासुपूज्यका समवसरण चम्पानगरीमें आया। राजा और रानी भी उनके दर्शनोंको गये। भगवानका उपदेश सुनकर दोनोंको वैराग्य हो गया। अशोकने मुनि-दीक्षा ले ली और रोहिणी आर्यिका बन गयी। मुनि अशोक भगवान् वासुपूज्यके गणधर बने और अन्तमें मोक्ष पधारे। रोहिणीने कठोर तप किया और मरकर अच्युत स्वर्ग में देव हुई।
-हरिषेण कथाकोष-कथा ५७ (४) चम्पानगरमें दन्तिवाहन राजा रहता था। उसकी रानीका नाम अभया था। उनके राजश्रेष्ठीका नाम वृषभदत्त था। श्रेष्ठीका एक ग्वाला था, जिसका नाम सुभग था। एक दिन सुभग लौट रहा था। सर्दीके दिन थे। जंगलमें उसे एक मनि दिखाई दिये जो ध्यान लगाये हुए बैठे थे। ग्वालेको उनपर बड़ी दया आयी-एक भी वस्त्र नहीं और इतनी भयानक सर्दी! वह रात-भर बैठा उनकी वैयावृत्य करता रहा । प्रातःकाल होनेपर मुनिराजने आँखें खोली, सुभगको आशीर्वाद दिया और कहा-'पूत्र ! मैं तुझे णमोकार मन्त्र देता हूँ। इसे सदा स्मरण रखना। तेरा कल्याण होगा।'
सुभगको णमोकार मन्त्रपर बड़ी श्रद्धा हो गयी। वह उठते-बैठते उसे सदा याद करता रहता। एक दिन बरसाती नदीमें वह तैरकर आ रहा था कि एक लकड़ीका ठूठ उसके पेटमें घुस गया और वह मर गया। मरते समय उसके मखसे णमोकार मन्त्र निकल रहा था। मरकर वह उसी सेठके घर पुत्र हुआ । नाम सुदर्शन रखा गया। जैसा नाम था, वास्तवमें वह वैसा ही सुदर्शन था।
एक दिन रानी अभयाने उसे देख लिया। देखते ही उसपर मोहित हो गयी। सुदर्शनका जैसा कि नियम था वह अष्टमी-चतुर्दशीको रात्रिमें श्मशानमें जाकर ध्यान लगाया करता था। रानीने अपनी एक विश्वस्त दासीको अपने मनकी बात बतायी। दासी बोली-"महारानीजी! आप चिन्ता न करें। मैं सुदर्शन सेठ को किसी न किसी प्रकार आपके पास ले आऊँगी।" और
स्थ सुदर्शनको उठवा लायी। कामान्ध अभयाने सुदर्शनके सामने निर्लज्ज होकर प्रणय-याचना की, अनेक कुचेष्टाएँ कीं। किन्तु दृढ़ शीलवती सुदर्शन विचलित नहीं हुआ। तब हारकर उस धूर्त स्त्रीने नाखूनोंसे अपने शरीर पर घाव कर लिये, कपड़े फाड़ लिये, बाल बिखेर लिये और शोर मचाने लगी-'यह दुष्ट मेरा सर्वनाश करना चाहता है । मुझे बचाओ, दौड़ो।'
रानीका करुण क्रन्दन सुनकर रक्षक दौड़े आये और सुदर्शनको बांधकर राजाके समक्ष ले गये । राजाने सुना तो उसे बड़ा क्रोध आया और उसने सुदर्शनको शूलीका आदेश दे दिया। बधिक सुदर्शनको लेकर श्मशानमें पहुँचे और उसे शूली दे दी। किन्तु आश्चर्य कि शूलीके स्थानपर सिंहासन बन गया । सुदर्शनको सिंहासनपर बैठाकर देवता उसकी जयजयकार करने लगे। यह आश्चर्यजनक समाचार राजाके पास पहुँचा । जब राजा दौड़ा आया और आकर उसने सेठ सुदर्शनसे अपने अपराधको क्षमा माँगी।
सुदर्शनने इसे अपने कर्मोका दोष बताया। उसने मुनि विमलवाहनसे मुनिदीक्षा ले ली और तपस्या करने लगा। अन्तमें पाटलिपुत्रमें जाकर सम्पूर्ण कर्मोंका नाश करके निर्वाण प्राप्त किया। हरिषेण कथाकोष-कथा ६०