________________
प्राक्कथन
१९
लक होता था, जो संघका व्यय उठाता था । संघ में विविध वाहन होते थे- हाथी, घोड़े, रथ, गाड़ी आदि । संघके साथ मुनि भी जाते थे । उस समय यात्रा में कई-कई माह लग जाते थे । महाराज अरविन्द जब मुनि बन गये और जब वे एक बार एक संघके साथ सम्मेद शिखरको यात्रा के लिए जा रहे थे, अचानक एक जंगली हाथी आक्रमणके उद्देश्यसे उनपर आ शपटा अरविन्द अवधि ज्ञानी थे। उन्होंने जाना कि यह तो मेरे मन्त्री मरुभूतिका जीव है । अतः उन्होंने उस हाथीको सम्बोधित करके उपदेश दिया। हाथीने अणुव्रत धारण कर लिये और प्रासुक जल और सूखे पत्तों पर निर्वाह करने लगा। वही जीव बाद में पार्श्वनाथ तीर्थंकर बना । इस प्रकारका कथन पौराणिक साहित्य में मिलता है ।
भैया भगवतीदास कृत 'अगंलपुर जिन-वन्दना' नामक स्तोत्र है उससे ज्ञात होता है कि रामपुरके श्रावकों के साथ भैया भगवतीदास यात्रा करते हुए अर्गलपुर (आगरा ) आये थे। उन्होंने अपने स्तोत्र में आगरा के तत्कालीन जैन मन्दिरोंका परिचय दिया है। इससे यह भी पता चलता है कि उस समय जैन समाजमें कितना अधिक सावर्मी वात्सल्य था । तब यात्रा संघके लोग किसी मन्दिर में दर्शनार्थ जाते थे तो उस मुहल्लेके जैन बन्धु संघके लोगोंको देखकर बड़े प्रसन्न होते थे और उनका भोजन, पानसे सरकार करते थे। दुख है कि वर्तमान में साधर्मी वात्सल्य नहीं रहा और न यात्रा संघोंके स्वागत-सत्कारका ही वह रूप रहा । यात्रा संपोंके अनेक उल्लेख विभिन्न ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों आदिमें भी मिलते हैं।
तीर्थ-यात्रा कैसे करें ?
वर्तमानमें यातायात के साधनोंकी बहुलता और सुलभताके कारण यात्रा करना पहले जैसा न तो कष्टसाध्य रहा है और न अधिक समय-साध्य यात्रा-संघों में यात्रा करनेके पक्ष-विपक्ष में तर्क दिये जा सकते हैं। किन्तु एकाकीकी अपेक्षा यात्रा - संघोंके साथ यात्रा करनेका सबसे बड़ा लाभ यह है कि अनेक परिचित साथियोंके साथ यात्राके कष्ट कम अनुभव होते हैं, समय पूजन, दर्शन, शास्त्र चर्चा आदिमें निकल जाता है; व्यय भी कम पड़ता है। रेलकी अपेक्षा मोटर बसों द्वारा यात्रा करनेमें कुछ सुविधा रहती है।
-
जब यात्रा करनेका निश्चय कर लें तो उसी समयसे अपना मन भगवान्की भक्ति में लगाना चाहिए और जिस समय घरसे रवाना हों, उसी समय से घर-गृहस्थीका मोह छोड़ देना चाहिए व्यापारकी चिन्ता छोड़ देनी चाहिए तथा अन्य सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त हो जाना चाहिए ।
यात्रामें सामान यथासम्भव कम ही रखना चाहिए किन्तु आवश्यक वस्तुएँ नहीं छोड़नी चाहिए। उदाहरण के रूपमें यदि सर्दीमें यात्रा करनी हो तो ओढ़ने बिछाने के रुईवाले कपड़े ( गद्दा और रजाई ) तथा पहननेके गर्म कपड़े अवश्य अपने साथ में रखने चाहिए। विशेषतः गुजरात, मद्रास आदि प्रान्तोंके यात्रियों को उत्तर प्रदेश, बिहार आदि प्रदेशों के तीर्थोंकी यात्रा करते समय इस बातको ध्यान में रखना चाहिए | कपड़ों के अलावा स्टोव, आवश्यक बरतन और कुछ दिनोंके लिए दाल, मसाला, आटा आदि भी साथमें ले जाना चाहिए ।
मैदानी इलाकोंके तीर्थों की यात्रा किसी भी मौसम में की जा सकती है। जिन दिनों अधिक गर्मी पड़ती और वर्षा होती है, उन्हें बचाना चाहिए जिससे असुविधा अधिक न हो।
तीर्थक्षेत्र पर पहुँचने पर यह ध्यान रखना चाहिए कि तीर्थक्षेत्र पवित्र होते हैं । उनकी पवित्रताको किसी प्रकार आन्तरिक और बाह्य रूपसे क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। ज्ञानार्णवमें आचार्य शुभचन्द्र
कहा है
"जनसंसर्गवाचितपरिस्पन्दमनोभ्रमाः । उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानिजनमतस्त्यजेत् ॥"
अर्थात् अधिक मनुष्यों का जहाँ संसर्ग होता है, वहाँ मन और वाणीमें चंचलता आ जाती है और मनमें विभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । यही सारे अनर्थोंकी जड़ है । अतः ज्ञानी पुरुषोंको अधिक जन-संसर्ग छोड़ देना चाहिए ।