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________________ प्राक्कथन १७ पूजन विधि प्रसंग समाजमें कुछ मान्यता-भेद है । अष्टद्रव्योंके नामोंके सम्बन्धमें कोई मतभेद नहीं है । केवल मतभेद है सचित्त और अचित्त ( प्रासुक ) सामग्री के बारेमें । एक वर्ग की मान्यता है कि अष्टद्रव्यों में जो नाम हैं, पूजनमें वे ही वस्तु चढ़नी चाहिए । इसके विपरीत दूसरी मान्यता है कि सचित्त वस्तुमें जीव होते हैं, उनकी हिंसाकी सम्भावनासे बचने के लिए प्रासुक वस्तुओंका ही व्यवहार उचित है । मतभेदका दूसरा मुद्दा है - भगवान्पर केशर चर्चित करनेका । इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि अष्टद्रव्यों में दूसरा द्रव्य चन्दन या गन्ध है । उसका एक मात्र प्रयोजन है भगवान्पर गन्ध विलेपन करना । दूसरा पक्ष इस बातको भगवान् वीतराग प्रभुकी वीतरागताके विरुद्ध मानता है और गन्धलेपको परिग्रह स्वीकार करता है । पूजन के सम्बन्ध में तीसरा विवाद इस बातको लेकर है कि पूजन बैठकर किया जाये या खड़े होकर । चौथा विवादास्पद विषय है भगवान्‌का पंचामृताभिषेक अर्थात् घृत, दूध, दही, इक्षुरस और जल । पाँचवाँ मान्यता- भेद है स्त्रियों द्वारा भगवान्‌का प्रक्षाल । इन मान्यता-भेदोंके पक्ष-विपक्ष में पड़े बिना हमारा विनम्र मत है कि भगवान्‌का पूजन भगवान् के प्रति अपनी विनम्र भक्तिका प्रदर्शन है । यह कषायको कृश करने, मनको अशुभसे रोककर शुभमें प्रवृत्त करने और आत्म-शान्ति प्राप्त करनेका साधन है । साधनको साधन मानें, उसे साध्य न बना लें तो मान्यता-भेदका प्रभाव कम हो जाता है । शास्त्रोंको टटोलें तो इस या उस पक्षका समर्थन शास्त्रों में मिल जायेगा । जिस आचार्यने जिस पक्षको युक्तियुक्त समझा, उन्होंने अपने ग्रन्थ में वैसा ही कथन कर दिया। उन्हें न किसी पक्षका आग्रह था और न किसी दूसरे पक्षके प्रति द्वेष भाव । हमें लगता है, अपने पक्षके प्रति दुराग्रह और दूसरे पक्ष के प्रति आक्रोश और द्वेष-बुद्धि, यह कषायमें से उपजता है । इसमें सन्देह नहीं कि सचित्त फलों और नैवेद्य ( मिष्टान्न आदि ) का वर्णन तिलोयपण्णत्त में नन्दीश्वर द्वीपमें देवताओंके पूजन प्रसंगमें मिलता है, अन्य शास्त्रोंमें भी मिलता है । किन्तु हमारी विनम्र मान्यतामें जब शुद्धाशुद्धि और हिंसा आदिका विशेष विवेक नहीं रहा, उस काल और क्षेत्र में सुधारवादी प्रवृत्ति चली और इसपर बल दिया गया कि जो भी वस्तु भगवान्‌के आगे अर्पण की जाये, वह शुद्ध हो, प्रासुक हो, सूखी हो, जिसमें हिंसा की सम्भावनासे बचा जा सके । यही बात गन्ध- विलेपन और पंचामृताभिषेक के सम्बन्धमें है । धर्म और पुण्य कार्यको कषायका साधन न बनावें । मनकी चंचलता, मनके संकल्प - विकल्प से दूर होकर आप भगवान् के गुणों के संकीर्तन चिन्तन और अनुभवमें अपने आपको जिस उपायसे, जिस विधि से केन्द्रित करें वही विधि आपके लिए उपादेय है । दूसरा व्यक्ति क्या करता है, क्या विधि अपनाता है, और उस विधिमें क्या त्रुटि है, आप इस पर अपने उपयोगको केन्द्रित न करके यह आत्म-निरीक्षण करें कि मेरा मन भगवान् के गुणोंमें आत्मसात् क्यों नहीं हुआ, मेरी कहाँ त्रुटि रह गयी, तब फिर क्या मतभेद मन-भेद बन सकते हैं ? तीन सौ तिरेसठ विरोधी मतोंके विविध रंगी फूलोंसे स्याद्वादका सुन्दर गुलदस्ता बनानेवाला जैनधर्म एक ही वीतराग जिनेन्द्र भगवान्‌के भक्तों की विविध प्रकार की पूजन विधियोंके प्रति अनुदार और असहिष्णु बनकर उनकी मीमांसा करता फिरेगा ? और क्या जिनेन्द्र प्रभुका कोई भक्त कषायको कृश करनेकी भावनासे जिनेन्द्र प्रभुके समक्ष यह दावा लेकर जायेगा कि जिस विधिसे मैं प्रभुकी पूजा करता हूँ, वही विधि सबके लिए उपादेय है ? नहीं, बिलकुल नहीं । हमारे अज्ञान और कुज्ञानमेंसे दम्भ घूरता है। और दम्भ अर्थात् मदमें से स्वके प्रति राग और परके प्रति द्वेष निपजता है । यह सम्यक् मार्ग नहीं है, यह मिथ्या - मार्ग है । [३]
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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