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________________ ७६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तुम्हारे साथ दीक्षा ग्रहण करेंगे। बान्धवोंकी बात मानकर जम्बूकुमारने उस समय दीक्षा लेनेका विचार स्थगित कर दिया। _अब परिवार-जनोंने जम्बूकुमारकी विराग-वृत्ति देखकर उन्हें मोहपाशमें बाँधनेका आयोजन किया। उन्होंने राजगृहके ही सेठ सागरदत्त, सेठ कुबेरदत्त, सेठ वैश्रवणदत्त और सेठ धनदत्तकी रूपवती पद्मश्री, कनकधी, विनयश्री और रूपश्री नामक कन्याओंके साथ जम्बूकुमारका विवाह कर दिया । रंगभवन पुष्पमालाओंसे अलंकृत था; रत्नचूर्णसे रंगावली की गयी थी। दीपाधारोंमें सुगन्धित तेलके दीप आलोकित थे। सुगन्धित द्रव्योंके धूम्रने कक्षमें स्वप्नलोककी सी सृष्टि कर दी थी। __वह पृथ्वी-तल पर बैठा हुआ था। उसके पास स्वप्न-लोक की परी-सी दिखाई देनेवाली वधुएँ बैठी थीं। माता यह देखने के लिए कहीं छिपकर खड़ी थी कि मेरा पुत्र इन रूप-बालाओंके पाशमें फँसता है या नहीं। उसी समय पोदननरेश विद्यद्राजका पुत्र विद्यत्प्रभ धन चराने के लिए वहाँ आया। यह विद्युत्प्रभ अपने बड़े भाईसे कुपित होकर पाँच सौ योद्धाओंके साथ घर त्याग कर निकल पड़ा था और विद्युच्चोर नामसे कुख्यात था। वह ज्यों ही कमरेमें घुसा, उसने जम्बूकुमारकी माताको जागता हुआ पाया। उसने मातासे उसके जागनेका कारण पूछा तो उसने विद्यच्चोरको यथार्थ बात बता दी और कहा-"मेरे यही एकमात्र पुत्र है। वह सुबह ही दीक्षा लेना चाहता है। यदि तू उसे उसके संकल्पसे विरत कर सके तो तुझे मैं यथेच्छ धन दूंगी।" विद्युच्चोरने यह स्वीकार कर लिया और वह सीधा वहीं जा पहुंचा जहाँ जम्बूकुमारको नव-वधुएँ समझा रही थीं। विद्युच्चोरने भी उसे संसारके भोगोंकी ओर नाना युक्तियों से आकर्षित करना चाहा। किन्तु जम्बूकुमारपर किसीका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि जम्बूकुमारकी बातोंसे प्रभावित होकर उसकी माता, वधुएँ और वह चोर सभी लोग भोगोंसे विरक्त हो गये और प्रातःकाल होनेपर विपुलाचल पर्वतपर जा पहुंचे। वहाँ सुधर्माचार्यसे सबने दीक्षा ले ली। अनन्तर जब सुधर्माचार्यको विपुलाचलसे निर्वाण प्राप्त हुआ, उसी दिन वहींपर जम्बूस्वामीको केवलज्ञान प्राप्त हुआ।' इसके बाद जम्बूस्वामी चालीस वर्ष तक पृथ्वीपर विहार कर धर्मोपदेश देते रहे। अन्तमें वे अघातिया कर्मोंका नाश कर मुक्त हुए। वीरकवि कृत 'जम्बूसामिचरिउ' में इस सम्बन्धमें इस प्रकार उल्लेख है विउलइरि सिहरि कम्मट्ट चत्तु । सिद्धालय सासय सोक्खपत्तु । सन्धि १०, कडवक २४ इसी प्रकार कवि राजमल्लने 'जम्बूस्वामीचरितम्' में लिखा है ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । कर्माष्टकविनिर्मुक्त: शाश्वतानन्द-सौख्यभाक् ।। इन दोनों ग्रन्थों के अनुसार जम्बूस्वामीका निर्वाण विपुलाचलसे हुआ। १. उत्तरपुराण, ७६।११८-१२० । २. प्राकृत निर्वाण काण्डमें जम्बूस्वामीके निर्वाण स्थानके सम्बन्धमें कुछ अन्तर मिलता है। उसमें यह पाठ है-'जंबु मुणिन्दो वन्दे णिव्वुइ पत्तो वि जंतु वण गहणे ।' इसमें जिस जम्बु वनका उल्लेख है, वह विपुलाचलपर नहीं मिलता, न वहाँ होनेका उल्लेख ही मिलता है। अतः कुछ विद्वान् 'जम्बु वन मथुरामें था' यह मानकर चौरासीको जम्बूस्वामीका निर्वाण क्षेत्र मानते हैं।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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