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________________ ... प्राक्कथन साधन है । इन साधनोंमें एक साधन तीर्थ भूमियाँ भी हैं। इन तीर्थ भूमियों को ही क्षेत्र-मंगल शब्दसे व्यवहृत ' किया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि तीर्थ शब्दका आशय व्यापक है और क्षेत्र-मंगल शब्द का अर्थ व्याप्य है । तीर्थ शब्दके साथ यदि भूमि या क्षेत्र शब्द और जोड़ दिया जाये तो उससे वही अर्थ निकलेगा जो क्षेत्र-मंगल शब्दसे अभिप्रेत है। तीर्थों की संरचनाका कारण तीर्थ शब्द क्षेत्र या क्षेत्र-मंगलके अर्थमें बहुप्रचलित एवं रूढ़ है । तीर्थ-क्षेत्र न कहकर केवल तीर्थ शब्द कहा जाये तो उससे भी प्रायः तीर्थ-क्षेत्र या तीर्थ-स्थानका आशय लिया जाता है। जिन स्थानोंपर तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, अभिनिष्क्रमण, केवल-ज्ञान और निर्वाणकल्याणकोंमें से कोई कल्याणक हुआ हो अथवा किसी निर्ग्रन्थ वीतराग तपस्वी मुनिको केवलज्ञान या निर्वाण प्राप्त हुआ हो, वह स्थान उन वीतराग महर्षियोंके संसर्गसे पवित्र हो जाता है। इसलिए वह पूज्य भी बन जाता है। वादीभसिंह सूरिने क्षत्रचूड़ामणि ( ६।४-५ ) में इस बातको बड़े ही बुद्धिगम्य तरीकेसे बताया है । वे कहते हैं पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ॥ सद्भिरध्युषिता धात्री संपूज्येति किमद्भुतम् । कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ।। अर्थात् महापुरुषों के संसर्गसे स्थान भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जहाँ महापुरुष रह रहे हों वह भूमि पूज्य होगी ही, इसमें आश्चर्यको क्या बात है। जैसे रस अथवा पारसके स्पर्श मात्रसे लोहा सोना बन जाता है। मूलतः पृथ्वी पूज्य या अपूज्य नहीं होती। उसमें पूज्यता महापुरुषोंके संसर्गके कारण आती है। पूज्य तो वस्तुतः महापुरुषोंके गुण होते हैं किन्तु वे गुण ( आत्मा ) जिस शरीरमें रहते हैं, वह शरीर भी पूज्य बन जाता है। संसार उस शरीरकी पूजा करके ही गुणोंकी पूजा करता है। महापुरुषके शरीरकी पूजा भक्तका शरीर करता है और महापुरुषके आत्मामें रहनेवाले गुणोंकी पूजा भक्तकी आत्मा अथवा उसका अन्तःकरण करता है । इसी प्रकार महापुरुष, वीतराग तीर्थंकर अथवा मुनिराज जिस भूमिखण्डपर रहे, वह भूमिखण्ड भी पूज्य बन गया । वस्तुतः पूज्य तो वे वीतराग तीर्थकर या मुनिराज है। किन्तु वे वीतराग जिस भूमिखण्ड पर रहे, उस भूमिखण्डकी भी पूजा होने लगती है। उस भूमिखण्ड की पूजा भक्तका शरीर करता है, उस महापुरुषकी कथा-वार्ता, स्तुति-स्तोत्र और गुण-संकीर्तन भक्तकी वाणी करती है और उन गुणोंका अनुचिन्तन भक्तकी आत्मा करती है। क्योंकि गुण आत्मा में रहते हैं, उनका ध्यान, अनुचिन्तन और अनुभव आत्मामें ही किया जा सकता है। वीतराग तीर्थंकरों और महर्षियोंने संयम, समाधि, तपस्या और ध्यानके द्वारा जन्म-जरा-मरणसे मुक्त होनेकी साधना की और संसारके प्राणियोंको संसारके दुखोंसे मुक्त होने का उपाय बताया। जिस मिथ्यामार्गपर चलकर प्राणी अनादि कालसे नाना प्रकारके भौतिक और आत्मिक दुख उठा रहे हैं, उस मिथ्यामार्गको ही इन दुखों का एकमात्र कारण बताकर प्राणियोंको सम्यक् मार्ग बताया। अतः वे महापुरुष संसारके प्राणियोंके अकारण बन्धु हैं, उपकारक हैं। इसीलिए उन्हें मोक्षमार्गका नेता माना जाता है। उनके उपकारोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उस भूमि-खण्डपर घटित घटनाको सतत स्मृति बनाये रखने और इस सबके माध्यमसे उन वीतराग देवों और गुरुओंके गुणोंका अनुभव करनेके लिए उस भूमिपर उन महापुरुषका कोई स्मारक बना देते हैं। संसारको सम्पूर्ण तीर्थभमियों या तीर्थक्षेत्रोंको संरचनामें भक्तोंकी महापुरुषोंके प्रति यह कृतज्ञताकी भावना ही मूल कारण है ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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