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________________ प्राक्कथन तीर्थ तीर्थ-मान्यता प्रत्येक धर्म और सम्प्रदायमें तीर्थों का प्रचलन है। हर सम्प्रदायके अपने तीर्थ हैं, जो उनके किसी महापुरुष एवं उनकी किसी महत्त्वपूर्ण घटनाके स्मारक होते हैं। प्रत्येक धर्मके अनुयायी अपने तीर्थों की यात्रा और वन्दनाके लिए बड़े भक्ति भावसे जाते हैं और आत्म-शान्ति प्राप्त करते हैं। तीर्थ-स्थान पवित्रता, शान्ति और कल्याणके धाम माने जाते हैं। जैन धर्म में भी तीर्थ-क्षेत्र का विशेष महत्त्व रहा है। जैन धर्मके अनुयायी प्रति वर्ष बड़े श्रद्धा-भावपूर्वक अपने तीर्थों की यात्रा करते हैं। उनका विश्वास है कि तीर्थ यात्रासे पुण्य-संचय होता है और परम्परासे यह मुक्ति-लाभ का कारण होती है। अपने इसी विश्वासकी बदौलत वृद्ध जन और महिलाएं भी सम्मेद शिखर, राजगृही, मांगीतुंगी, गिरनार जैसे दुरूह पर्वतीय क्षेत्रों पर भी भगवान् का नाम स्मरण करते हुए चढ़ जाते हैं। बिना आस्था और निष्ठाके क्या कोई वृद्धजन ऐसे पर्वतपर आरोहण कर सकता है ? तीर्थकी परिभाषा तीर्थ शब्द तृ धातुसे निष्पन्न हुआ है । व्याकरणकी दृष्टिसे इस शब्दको व्युत्पत्ति इस प्रकार है'तीर्यन्ते अनेन वा।' 'तृ प्लवनतरणयोः' ( स्वा. प. से.)। 'पातृतुदि'-( उ.२७) इति थक् । अर्थात् तु धातुके साथ थक् प्रत्यय लगाकर तीर्थ शब्दकी निष्पत्ति होती है। इसका अर्थ है-जिसके द्वारा अथवा जिसके आधारसे तरा जाय । कोषके अनुसार तीर्थ शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । यथा निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ । -अमरकोष तृ. काण्ड श्लोक ८६ तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायनारीरजःसु च । अवतारषिजुष्टाम्बुपानोपाध्यायमन्त्रिषु ॥ -मेदिनी इस प्रकार कोषकारोंके मतानुसार तीर्थ शब्द जलावतरण, आगम, ऋषि जुष्ट जल, गुरु, क्षेत्र, उपाय, स्त्री-रज, अवतार, पात्र, उपाध्याय और मन्त्री इन विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैन शास्त्रोंमें भी तीर्थ शब्दका प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। यथा संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते।। चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा । -जिनसेनकृत आदिपुराण ४।८ अर्थात् जो इस अपार संसार-समुद्रसे पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवानका चरित्र ही हो सकता है। अतः उसके कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं। यहाँ जिनेन्द्र भगवान्के चरित्र को तीर्थ कहा गया है । आचार्य समन्तभद्रने भगवान जिनेन्द्रदेवके शासनको सर्वोदय तीर्थ बताया है
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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