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________________ प्राक्कथन शिखरसे मुक्ति प्राप्त की। इन पाँच निर्वाण क्षेत्रोंके अतिरिक्त अन्य मुनियों की निर्वाण भूमियां हैं, जिनमेंसे कुछके नाम निर्वाण भक्तिमें दिये हुए हैं। कल्याणक क्षेत्र-ये वे क्षेत्र हैं, जहां किसी तीर्थकरका गर्भ, जन्म, अभिनिष्क्रमण ( दीक्षा) और केवलज्ञान कल्याणक हुआ है। जैसे हस्तिनापुर, शौरीपुर, अहिच्छत्र, वाराणसी, काकन्दी, ककुभग्राम आदि । अतिशय क्षेत्र-जहाँ किसी मन्दिरमें या मूर्तिमें कोई चमत्कार दिखाई दे, तो वह अतिशय क्षेत्र कहलाता है । जैसे श्री महावीरजी, देवगढ़, हुम्मच, पद्मावती आदि । जो निर्वाण क्षेत्र अथवा कल्याणक क्षेत्र नहीं हैं, वे सभी अतिशय क्षेत्र कहे जाते हैं। अतिशय क्षेत्रोंके प्रति जनसाधारणका आकर्षण भौतिक या सांसारिक होता है, आध्यात्मिक नहीं होता। लोग या तो ऐहिक कामनावश वहाँ जाते हैं अथवा उनके मनमें अद्भुत कुतूहल होता है । तीर्थक्षेत्रोंकी स्थापनाके मूलमें जिस आध्यात्मिक भावनाका विकास हुआ था, वह भावना थी आत्मिक शान्ति-लाभ और उस क्षेत्रसे सम्बन्धित वीतराग तीर्थकर या महर्षियोंके आदर्शसे अनुप्राणित होकर आत्मकल्याण की । किन्तु अतिशय क्षेत्रोंमें भौतिक प्रलोभन ही आकर्षणके केन्द्र-बिन्दु होते हैं। हमें लगता है, जैन जनताको ऐहिक कामनाओंकी पूर्तिके लिए यद्वा तद्वा जैनेतर देव-स्थानों में जानेसे रोकनेके लिए ही अतिशय क्षेत्रोंकी स्थापना की गयी। यह कल्पना सम्भवतः भट्टारक परम्परा की देन है। अतिशय क्षेत्र प्रायः ८-९वीं शताब्दीके बादके हैं । और यह वह काल था, जब जैन धर्मको अपनी अस्तित्वरक्षाके लिए लगभग सभी प्रान्तोंमें और मुख्यतः दक्षिण भारतमें कठिन संघर्ष करना पड़ रहा था। उस कालमें जैन धर्मपर जैनोंकी आस्था बनाये रखनेके लिए ही मनीषी आचार्यों और भट्टारकोंको अतिशय क्षेत्रोंकी कल्पना करनी पड़ी। सैद्धान्तिक दृष्टिकोणसे इसका समन्वय भले ही न किया जा सकता हो, किन्तु ऐसी कल्पनाके लिए तत्कालीन धार्मिक और राजनैतिक परिस्थिति ही जिम्मेदार कही जा सकती है। तीर्थों का माहात्म्य संसारमें प्रत्येक क्षेत्र-स्थान समान हैं, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका प्रभाव हर स्थानको दूसरे स्थानसे पृथक् कर देता है । द्रव्यगत विशेषता, क्षेत्रकृत प्रभाव और कालकृत परिवर्तन हम नित्य देखते हैं । इससे भी अधिक व्यक्तिके भावों और विचारोंका चारों ओरके वातावरणपर प्रभाव पड़ता है। जिनके आत्मामें विशुद्ध या शुभ भावोंकी स्फुरणा होती है, उनमेंसे शभ तरंगें निकलकर आसपासके सम्पूर्ण वातावरणको व्याप्त कर लेती हैं । उस वातावरणमें शुचिता, शान्ति, निर्वरता और निर्भयता व्याप्त हो जाती है। ये तरंगें कितने वातावरणको घेरती हैं, इसके लिए यही कहा जा सकता है कि उन भावोंमें, उस व्यक्तिकी शुचिता आदिमें जितनी प्रबलता और वेग होगा, उतने वातावरणमें वे तरंगें फैल जाती है । इसी प्रकार जिस व्यक्तिके विचारोंमें जितनी कषाय और विषयोंकी लालसा होगी, उतने परिमाणमें, वह अपनी शक्ति द्वारा सारे वातावरणको दूषित कर देता है। इतना ही नहीं, वह शरीर भी पुद्गल-परमाणु और उसके चारों ओरके वातावरणके कारण दूषित हो जाता है। उसके अशुद्ध विचारों और अशुद्ध शरीरसे अशुद्ध परमाणुओंकी तरंगें निकलती रहती हैं, जिससे वहाँके वातावरण में फैलकर वे परमाणु दूसरेके विचारोंको भी प्रभावित करते हैं। प्रायः सर्वस्वत्यागी और आत्मकल्याणके मार्गके राही एकान्त शान्तिकी इच्छासे वनोंमें, गिरि-कन्दराओंमें, सुरम्य नदी-तटोंपर आत्मध्यान लगाया करते थे। ऐसे तपस्वी-जनोंके शुभ परमाणु उस सारे वातावरणमें फैल कर उसे पवित्र कर देते थे। वहाँ जाति-विरोधी जीव आते तो न जाने उनके मनका भय और संहारकी भावना कहाँ तिरोहित हो जाती । वे उस तपस्वी मुनिकी पुण्य भावनाकी स्निग्ध छायामें परस्पर किलोल करते और निर्भय विहार करते थे।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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