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आराधनासमुच्चयम् ७३
दर्शनोपयोग में सामान्य-विशेषात्मक पदार्थों के आकारविशेष को ग्रहण न करके केवल निर्विकल्प रूप से अंश का या स्वरूप मात्र का सामान्य ग्रहण होता है। किसी भी आकारविशेष का इसमें ग्रहण नहीं है, अत: यह अनाकार है।
इस उपयोग में शुक्ल, कृष्ण इत्यादि का विकल्प नहीं होता, अतः यह निर्विकल्प है। छमस्थ जीवों को दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है परन्तु केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ
होते हैं।
दर्शनोपयोग के भेद तच्चक्षुरादिदर्शनभेदात् प्रविकल्प्यमानमाप्नोति।
चातुर्विध्यमनेकप्रभेद-संदोह-संयुक्तम् ।।४३ ।। अन्वयार्थ - तत् - वह दर्शनोपयोग। चक्षुरादिदर्शनभेदात्- चक्षु आदि दर्शन के भेद से। चातुर्विध्यं - चार प्रकार का और प्रविकल्प्यमानं - प्रविकल्प्यमान । अनेकप्रभेदसंदोहसंयुक्तं - अनेक प्रकार के प्रभेद के सन्दोह से संयुक्त को। आप्नोति - प्राप्त होता है।
अर्थ - यह दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का है। ये चारों भेद अनेक भेदों के समूह से संयुक्त हैं अर्थात् इन चारों के अन्तर्गत अनेक भेद हैं। जिस प्रकार ज्ञानोपयोग पाँच प्रकार का है, परन्तु उनके उत्तर भेद अनेक हैं, उसी प्रकार दर्शनोपयोग के भी अनेक भेद हैं। जैसे अचक्षुदर्शन के स्पर्शन अचक्षुदर्शन, रसना अचक्षुदर्शन, घ्राणअचक्षुदर्शन, कर्णअचक्षुदर्शन, मानसिक अचक्षुदर्शन आदि अनेक भेद से युक्त दर्शनोपयोग है। इसी विषय को सूचित करने के लिए आचार्यदेव ने अनेक प्रभेद संदोह संयुक्त' कहा है। अथवा मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं, उन तीन सौ छत्तीस भेदरूप ज्ञान के पूर्व होने वाला चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन भी तीन सौ छत्तीस प्रकार का हो सकता है।
चक्षुदर्शन का लक्षण चक्षुर्ज्ञानात्पूर्व प्रकाशरूपेण विषयसंदी।
यच्चैतन्यं प्रसरति तच्चक्षुर्दर्शनं नाम ॥४४॥ अन्वयार्थ - चक्षुज्ञानात् - चक्षु ज्ञान से। पूर्व - पूर्व (पहले) प्रकाशरूपेण - प्रकाश रूप से । विषयसंदर्शी - विषय को दिखाने वाला। यत् - जो। चैतन्यं - आत्मा का। प्रसरति - व्यापार होता है। तत् - वह । चक्षुर्दर्शनं नाम - चक्षुदर्शन कहलाता है।
अर्थ - जिस प्रकार प्रकाश वस्तु को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार प्रकाश रूप से चक्षुज्ञान के पूर्व विषयों को दिखाता है, अवलोकन कराता है। चैतन्य के सम्मुख उपयोग होता है, उसको चक्षु दर्शन कहते हैं।