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________________ आराधनासमुच्चयम् :५६ वाले शब्द का अभाव होने से वस्तु अवक्तव्य है। ये चार भंग सकल वस्तु को विषय करने के कारण सकलादेश कहलाते हैं। सदवाच्यत्व - जब एक अंश सद्रूप से तथा दूसरा अव्यक्त रूप से विवक्षित है तब वस्तु सदवाच्य होती है। असदवाच्यत्व - जब एक अंग असद्रूप से तथा दूसरा अवाच्य रूप से विवक्षित होता है तब वस्तु असदवाच्य रूप होती है। सदसदवाच्यत्व - जब एक भाग सत् रूप से, दूसरा असत् रूप से तथा तीसरा अवाच्य रूप से विवक्षित होता है, तब वस्तु सदसदवाच्य होती है। इन सातों भंगों से जीवादि नौ पदार्थों को गुणा करने पर (७४९) ६३ भंग होते हैं। दसवें 'उत्पत्ति' के सत्, असत्, उभय तथा अवाच्य ये चार ही विकल्प होते हैं। शेष तीन भंग तो उत्पत्ति के बाद जब पदार्थ की सत्ता हो जाती है तब उसके अवयवों की अपेक्षा बनते हैं। इस प्रकार उत्पत्ति के चार भंगों को ६३ में मिलाने पर अज्ञानवाद मिथ्यात्व के ६७ भेद होते हैं। शंका - इसमें सप्तभंगी का कथन है, यह मिथ्यात्व कैसे ? उत्तर - यद्यपि सप्तभंगी के द्वारा ये ६७ भेद होते हैं, परन्तु अज्ञान मिथ्यादृष्टि कहता है कि कौन जानता है कि 'जीव सत् है।' जीव की सत्ता सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है, अत: उसकी सत्ता कोई सिद्ध नहीं कर सकता अथवा जीव आदि पदार्थों की सत्ता का ज्ञान भी हो जाये तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत् ज्ञान अहंकार का कारण होने से परलोक को बिगाड़ने वाला ही है। इस प्रकार ‘जीवादि नास्ति' इत्यादि विकल्पों में अज्ञानवाद की प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए। इसी प्रकार उत्पत्ति सत्र की होती है या असत् की अथवा उभयात्मक की या अवाच्य की? यह सब कौन जानता है ? इनके जानने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसलिए इनको जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। इस प्रकार की विपरीत बुद्धि होने से अज्ञानवाद मिथ्यात्व है। यह वस्तु को जानता हुआ भी अनजान के समान होने से मिथ्यात्व है। विनयपूर्वक जिनका आचार-व्यवहार है, वे वैनयिक कहलाते हैं। वशिष्ठ, पाराशर, वाल्मीकि व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि प्रमुख वैनयिक हुए हैं। इनका वेष, आचार तथा शास्त्र आदि कुछ भी निश्चित नहीं है। प्रत्येक शास्त्र, वेष तथा आचार इन्हें इष्ट है। विनय करना ही इनका मुख्य कर्त्तव्य है। विनयवाद नामक वैनयिक मिथ्यात्व के बत्तीस भेद इस प्रकार जानने चाहिए - देवता, राजा, साधु, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता तथा पिता इन आठों की मन, वचन, काय तथा देश-कालानुसार दान देकर विनय
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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