SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् ५२ परोपदेश के नाम से जो अतत्व प्रदान होता है, उसको अधिगमज वा गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। यह गृहीत मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक । क्रिया (अस्तित्व) की प्रधानता से जहाँ कथन किया जाता है वह क्रियावाद है। मरीचि कुमार, कपिल, उलूक, माठर आदि क्रियावादी हैं। इनके १८०भेद इस प्रकार हैं - जीव, अजीव, आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप, मोक्ष इन सब पदार्थों को एक पंक्ति में स्थापित करो । जीवादि पदार्थों के नीचे स्वत: और परतः ये दो भेद स्थापित करने चाहिए। पुनः प्रत्येक के नीचे नित्य और अनित्य को स्थापित करो। पुन: प्रत्येक के नीचे काल, ईश्वर, आत्मा, नियति और स्वभाव रूप से पाँच-पाँच भेद स्थापित करने चाहिए। इस प्रकार जीव पदार्थ के २० भेद होंगे। जीव स्वत; नित्यरूप है - काल जीव स्वतः अनित्यरूप है - काल जीव परतः नित्य रूप है - काल जीव परत: अनित्य रूप है - काल काल के साथ चार भेद हैं। इसी प्रकार ईश्वर, आत्मा, नियति और स्वभाव की अपेक्षा चार-चार भेद होने से जीव सम्बन्धी २० भेद हैं। इसी प्रकार अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप और मोक्ष के २०-२० भेद हैं। सर्व मिलाकर १८० भेद क्रियावदियों के होते हैं। यहाँ पर क्रिया का अर्थ अस्तित्व है। (१) कालवादियों के मत में यह आत्मा अपने स्वरूप से विद्यमान है, नित्य है, परन्तु कालाधीन होकर प्रवृत्ति करता है। कालवाद मत के अभिप्राय से जन्म, मरण, सुख, दुःख, वस्तु परिपाक आदि सारे कार्य कालकृत हैं। काल पृथ्वी आदि भूतों के परिणमन में सहायक होता है। काल प्रजा का संहार करता है, काल सुलाता है, काल जगाता है, काल ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ले जाता है। अत: काल अलंघ्य शक्ति है उसे कोई टाल नहीं सकता। इस प्रकार कालवाद का कथन है। दूसरा विकल्प ईश्वरवादियों का है - (२) जीव स्वतः विद्यमान है, नित्य है, परन्तु उसकी सारी प्रवृत्तियाँ ईश्वर के आधीन हैं अर्थात् ईश्वरवादी इस जगत् को ईश्वरकृत मानते हैं। वह ईश्वर सहज सिद्ध ज्ञान, वैराग्य, धर्म और ऐश्वर्य इस चतुष्टय का धारक है तथा प्राणियों को स्वर्ग-नरक में भेजने वाला है अर्थात् यह आत्मा स्वयं स्वकीय सुखदुःख भोग के क्षेत्र को खोजने में असमर्थ है अत: अज्ञ आत्मा ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर ही सुख-दुःख भोगने के लिए स्वर्ग तथा नरक में जाता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy