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आराधनासमुच्चयम् ४९
हैं। शास्त्रकथित दुर्धर उपधान ( तपश्चरण) भी करते हैं। भली प्रकार बहुमान का भी विस्तार करते हैं। अनिव ( गुरु का नाम भी नहीं छिपाते हैं) का पालन करते हैं। अर्थ, व्यंजन तथा उभय, इनको शुद्ध पढ़ते हैं । अर्थात् ज्ञान के इन आठ अंगों का पालन करने के लिए निरंतर सावधान रहते हैं।
चारित्राचरण के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पाँच पापों के त्यागमय पंच महाव्रत का भी पालन करते हैं। सम्यग्योग निग्रह रूप तीन गुप्ति का भी पालन करते हैं। ईर्या समिति, भाषा समिति, ऐषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति और उत्सर्ग समिति इन पाँचों समितियों का पालन भी प्रयत्न पूर्वक करते हैं।
तपश्चरण के लिए अनशन ( चारों प्रकार के आहार का त्याग कर बेला तेला आदि करना), अवमौदर्य (भूख से कम खाना), वृत्ति परिसंख्यान (कोई अटपटा नियम लेना ), रस परित्याग (छहों रसों में एक, दो या सर्व रसों का त्याग ), विविक्त शय्यासन ( एकान्त में बैठना तथा शयन करना), कायक्लेश ( शरीर के द्वारा अनेक प्रकार के क्लेशों को सहन करना) इन छह प्रकार के बाह्य तपों का प्रयत्नपूर्वक आचरण भी करते हैं। प्रायश्चित्त (व्रतों में दूषण लगने पर दोषों का निराकरण करने के लिए गुरुओं के समीप जाकर दण्ड लेना ), विनय ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उपचार रूप चार प्रकार के विनय का पालन ), वैयावृत्ति ( आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, संघ, कुल, साधु और मनोज्ञ इनकी आपत्ति दूर करना ), स्वाध्याय (जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का पढ़ना, पढ़े हुए को गुरुजनों से पूछना, बार-बार उनका चिंतन करना, बार-बार उच्चारण करना और धर्म का उपदेश देना ), व्युत्सर्ग ( बाह्य परिग्रह का त्याग, अभ्यन्तर का नहीं), ध्यान (बाह्य में ध्यान समान दीख रहा है, परन्तु अभ्यन्तर में आर्त्त- रौद्र ध्यान चल रहा है ।) इस प्रकार कर्मचेतना की प्रधानता से पंचाचार का पालन करता है, इसके प्रभाव से नवग्रैवेयक में भी जा सकता है, परन्तु आत्मानुभव रूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता ।
कर्मफलचेतना वाला कुछ भी शुभ क्रिया नहीं कर सकता। (पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति गाथा १७२ )
सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिताहित की परीक्षा से रहित और हिताहित परीक्षक इन दो श्रेणियों में विभाजित है। इनमें संज्ञी पर्याप्त में कोई हिताहित परीक्षक है, कोई नहीं है, परन्तु एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पर्यन्त जीव हिताहित परीक्षा के विचार से रहित हैं। (राजवार्तिक अ. ९ सूत्र १ )
इन दोनों परिणामों का सूचक श्लोक में 'द्विविधपरिणामः' शब्द है ।
सादि मिथ्यादृष्टि का मिथ्यात्व गुणस्थान में रहने का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, तदनन्तर सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आने से क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है या सम्यक् मिथ्यात्व के उदय से तीसरे गुणस्थान को प्राप्त होता है। उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तन है, अर्धपुद्गल परिवर्तन के भीतर नियम से सम्यग्दृष्टि होकर मोक्ष चला जाता है।