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________________ I हि - निश्चय से । इव - जैसे गिरिशिरस्खलितः - पर्वत की चोटी पर से स्खलित हुआ प्राणी । भूम्यां - भूमि पर । पतति - गिरता है, उसी प्रकार उपशम गुणस्थान से गिरकर दूसरे गुणस्थान में आया हुआ । अस- यह प्राणी । मिथ्यात्वे - मिथ्यात्व में । पतति - जाता है। भावार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहने पर जब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया वा लोभ इन चारों में से किसी एक का उदय होता है, तब यह जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। जिस प्रकार पर्वत के शिखर से गिरा और भूमि का स्पर्श नहीं किया है, परन्तु मध्य की अवस्था है, उसी प्रकार जो प्राणी सम्यग्दर्शन रूपी पर्वत के शिखर से गिरा और मिथ्यात्व रूपी भूमि पर नहीं पहुँचा उसकी मध्य की अवस्था सासादन गुणस्थान है । सासादन का काल समाप्त होने पर यह नियम से मिध्यात्व को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय मिथ्यादर्शन रूपी फल को उत्पन्न करती है, अतः मिथ्यात्व में आने का रास्ता खोल देती है। आराधनासमुच्चयम् ४७ इसमें सम्यग्दर्शन का काल छह आवली और एक समय कहा है। उसका तात्पर्य यह है कि जब तक दर्शनमोह का उपशम कर रहा है अथवा उपशम सम्यग्दर्शन का काल छह आवली से अधिक रहता है, या समाप्त हो जाता है तो वह सासादन में नहीं जाता है । - सासादन गुणस्थान में निषिद्ध कार्य सासादनस्य नरकेषूत्पत्तिर्नास्ति मरणमप्यनये | ह्येकविकलेन्द्रियेषूत्पत्तिरिहाचार्यमतभेदात् ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ सासादनस्य सासादन गुणस्थानवाले की। मरण होने पर। नरकेषु - नरकों में। उत्पत्ति: उत्पत्ति । न नहीं। अस्ति है। अनये अ नय में मरणं मरण होने पर । एकविकलेन्द्रियेषु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में । उत्पत्तिः आचार्यमतभेदात् - आचार्यों का मतभेद है। उत्पत्ति होती है । इह इसमें । - - - - - " - - अर्थ - इस श्लोक में सासादन गुणस्थान में मरकर जीव कहाँ कहाँ उत्पन्न होता है, कहाँ नहीं होता, इसका कथन किया है। सासादन गुणस्थान में भरा हुआ जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होता। अत: नरकों में अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान नहीं होता । किसी आचार्य के मत से सासादन गुणस्थान वाला मरकर एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकता है। किसी आचार्य के मत से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता । भावार्थ - यद्यपि किन्हीं आचार्यों के मत से एकेन्द्रिय में उत्पन्न होता है, परन्तु एकेन्द्रियों में काय, वायुकाय और लब्ध्यपर्याप्त में उत्पन्न नहीं होते। बादर पृथ्वीकाय, बादर जलकाय और बादर वनस्पतिकाय में उत्पन्न हो सकते हैं, सूक्ष्म में नहीं। एकेन्द्रिय में भी त्रस नाली के बाहर जन्म नहीं लेते,
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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