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________________ आराधनासमुच्चयम् ४१ जिनेन्द्र बिम्ब आदि द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र है, अर्धपुद्गल परिवर्तनविशेष काल है और अधःप्रवृत्तिकरण आदि करण लब्धि भाव है। इस प्रकार यह भव्य प्राणी क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि आदि बाह्य कारण तथा करणलब्धि रूप अंतरंग कारण रूप सामग्री को प्राप्त कर उपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। आचार्यदेव ने इस श्लोक द्वारा प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अंतरंग एवं बहिरंग कारणों का कथन किया है। __ बहिरंग और अंतरंग कारणों के द्वारा संसार के विच्छेदक (नाशक) प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन को ग्रहण कर मिथ्यात्व के, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति रूप तीन टुकड़े करता है, मिथ्यात्व के तीन भेद करता है। इस कथन से सम्यग्दर्शन के फल को सूचित किया है। विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन के सम्मुख हुआ जीव क्रमशः पाँच लब्धियों को प्राप्त कर सम्यग्दर्शन को ग्रहण करता है। क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियाँ हैं। मोपादेय के विमाने की .. उत्त योपशम लब्धि है। हेयोपादेय के विचार से प्रति समय परिणामों में विशुद्धि की वृद्धि होती है, कषायों की मन्दता होती है, उसको विशुद्धि लब्धि कहते कषायों की मन्दता होने पर जो सम्यक् उपदेश अर्थात् जिनवचन को सुनने का अवसर प्राप्त होता है, सुने हुए श्रुत का मनन करना है, वह देशना लब्धि है। विशुद्धि लब्धि कारण है और देशना लब्धि कार्य है, क्योंकि जिसका चित्त कषायों से रंजित है उसे तत्त्व का अवगाहन नहीं होता । जैसे कृष्ण वस्त्र पर लाल वा श्वेत रंग नहीं चढ़ सकता। (स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशति : १७) । उस देशना के कारण से प्राप्त हुई परिणाम विशुद्धि के फलस्वरूप पूर्व कर्मों की स्थिति घंटकर अन्त:कोटाकोटी सागर मात्र रह जाती है और नवीन कर्म भी इससे अधिक स्थिति के नहीं बँधते हैं, यह प्रायोग्यलब्धि है। देशना के द्वारा सुने हुए तत्त्वोपदेश का सम्यक् प्रकार से निदिध्यासन (चिंतन) करना करणलब्धि है। इस करणलब्धि के भी तरतमता लिये हुए तीन भाग होते हैं। अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। अधःकरण में परिणामों की विशुद्धि में प्रतिक्षण अनन्त गुणी वृद्धि होती है। अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणा हीन और शुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनन्त गुणा अधिक बँधता है, परन्तु इन परिणामों
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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