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________________ आराधनासमुच्चयम् * ३६ साकारोपयोग - साकार उपयोग (ज्ञानोपयोग) में अवस्थित के ही प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, दर्शनोपयोग में अवस्थित प्राणी प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का उत्पादक नहीं है। __ अपर्याप्त अवस्था और सुप्त अवस्था में सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती। दर्शनोपयोग के समय में सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि और सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामों का अभाव पाया जाता है। साकार उपयोग और जागृदवस्था के समय ही सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि एवं संक्लेश पाया जाता है। विशुद्ध परिणामों के बिना को के स्थितिकाण्डघात आदि नहीं होते, इसलिए जाग्रत अवस्था और साकारोपयोग अवस्था अवस्थित कहा गया है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का प्रारंभक साकारोपयोगी होता है, किन्तु इस सम्यग्दर्शन का निष्ठापक एवं मध्यवर्ती जीव भजितव्य है अर्थात् वह दर्शनोपयोगी भी हो सकता है। (क. पा. सू. १० गा. १९८) योग्य स्थिति एवं योग्य अनुभाग का भोक्ता ही प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। योग्य स्थिति - आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागरोपमहीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण को स्थापित करता है तथा अन्त:कोड़ाकोड़ी स्थिति को बाँधता है, तब प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने योग्य होता है। सम्यग्दर्शन के सम्मुख होने वाले जीव के स्थिति काण्डयात और स्थिति बंधापसरण ये दो प्रक्रियाएँ स्थिति के लिए होती हैं। जो स्थिति सत्ता में है उसका काण्ड रूप से घात करके अन्त:कोड़ाकोड़ी प्रमाण कर लेना स्थितिकाण्डघात है। एक साथ कर्मों की स्थिति का घात करना संभव नहीं है, अतः संख्यात हजार, संख्यात हजार वर्ष स्थिति का घात करता है। स्थिति काण्डघात सत्ता में पड़ी प्रकृतियों का होता है। जो वर्तमान में स्थिति बाँधता है, वह भी अंत:कोड़ा-कोड़ी प्रमाण बाँधता है, वह स्थिति बंधापसरण है। कर्मों की स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ी प्रमाण वाला जीव स्थितियोग्यभाक् कहलाता है क्योंकि इसी जीव में सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने की योग्यता आती है। इसलिए स्थितियोग्य कहा है। योग्य अनुभाग भाक् - अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय अनन्त गुणा घटता हुआ बँधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतु:स्थानीय अनुभाग प्रति समय अनन्त गुणा बढ़ता हुआ बँधत्ता है, अर्थात् अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानीय होता है, प्रशस्त कर्म प्रकृतियों का अनुभाग चतुःस्थानीय होता है तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करने में समर्थ होता है। इसे योग्य अनुभागभाक् कहते हैं। १. अप्पज्जत्तकाले सबुक्कस्स विसोही णत्थि। घ, १२/४, २, ७, ३८। २. सागारजागारद्धासु चेव सबुक्कस्स विसोहीयो सवुक्कस्स संकिलेसा च होत्ति ति। - ध. १२/४, २, ७, ३८ ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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