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________________ आराधनासमुच्चयम् २९ समयसार की तात्पर्य वृत्ति में लिखा है कि सराग सम्यग्दृष्टि केवल अशुभ कर्मों के कर्तापने को छोड़ता है, शुभकर्म के कर्त्तापने को नहीं छोड़ता है, परन्तु निश्चय चारित्र के अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के कर्त्तापने को छोड़ देता है। भक्ति आदि शुभ राग से परिणत सराग सम्यग्दृष्टि है और वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार सराग, वीतराग सम्यग्दर्शन के स्वरूप के कथन आचार्यों ने किया है। निश्चय और व्यवहार के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन समस्त रत्नों में सारभूत रत्न है और मोक्ष रूपी वृक्ष का मूल है, इसके निश्चय एवं व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए। (र.सा. ४) हिंसादि रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग वा गुरु इनमें श्रद्धा होना व्यवहार सम्यग्दर्शन है अथवा जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान, सच्चे देव-शास्त्र एवं गुरु का श्रद्धान ये सब लक्षण व्यवहार सम्यग्दर्शन के हैं क्योंकि व्यवहार भेद को ग्रहण करता है। नौ पदार्थों से भिन्न, स्वकीय शुद्धात्मा की रुचि, 'शुद्धात्मा ही उपादेय है और सर्व हेय है', ऐसी भावना निश्चय सम्यग्दर्शन है। 'रागादि से भिन्न, स्वात्मा से उत्पन्न सुखस्वरूप जो परमात्मा है वैसा ही मैं हूँ ऐसे दृढ़ वास्तविक श्रद्धान से उत्पन्न जो आत्मसंवेदन है, आत्मस्वरूप के भान का आनन्द है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। वा 'रागादि विकल्प रहित चित् चमत्कार भावना से उत्पन्न मधुर रस का आस्वादन करने वाला मैं हूँ ऐसी दृढ़ प्रतीति ही निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख हेय हैं, ऐसी रुचि रूप वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग नामधारी निश्चय सम्यग्दर्शन है। निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन इन दोनों में परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध है। व्यवहार कारण है, निश्चय कार्य है। व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शन का साधक है, निश्चय साध्य जो व्यवहार नय के विषयभूत नव पदार्थ हैं उनको जानना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। उन नव पदार्थों में शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसको जानना, उसका श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है अर्थात् निश्चय और व्यवहार दोनों एक साथ ही रहते हैं। कहा भी है. चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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