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आराधनासमुच्चयम् ३६२
अर्थात् १३वें और १४वें गुणस्थान में। दुरितानां - पाप कर्मों की। असंख्येयगुणश्रेण्या - असंख्यात गुण श्रेणी 67 , निर्जरणं .. निर्जत । भापति - होती है। पसः - तप का। मुख्यं - मुख्य । फलं - फल है।
अर्थ - सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, सरागसंयमी, अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करने वाले, दर्शनमोह की सत्ता-व्युच्छित्ति करके क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के समय, उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले के, ग्यारहवें गुणस्थान में, क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले के, १२वें गुणस्थान को प्राप्त क्षपक के और तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है, यह तपश्चरण का मुख्य फल है अर्थात् तपश्चरण का मुख्य फल है- कर्मों की संवरपूर्वक असंख्यात गुणी निर्जरा होना और अमुख्य फल है सांसारिक अभ्युदय।
तपश्चरण का मुख्य फल्न अतिशयमात्मसमुत्थं विषयातीतं च निरुपममनन्तम् ।
ज्ञानमयं नित्यसुखं तपसो जातं तु मुख्यफलम्॥२५०॥ अन्वयार्थ - अतिशयं - अतिशयवान। आत्मसमुत्थं - आत्मा से उत्पन्न। विषयातीतं - विषयातीत । निरुपमं - निरुपम । अनन्तं - अन्तरहित। च - और । ज्ञानमयं - ज्ञानमय । नित्यसुखं - नित्य सुख की। जातं - उत्पत्ति होना ही। तपसः - तप का। मुख्यफलं - मुख्य फल है। तु - पादपूर्ति के लिए है।
अर्थ - तपश्चरण के द्वारा इस मानव को अतिशयवान, पर-पदार्थनिरपेक्ष, आत्मा से उत्पन्न, पंचेन्द्रिय विषयों से रहित, निरुपम, अनन्त, अविनाशी और ज्ञानानन्दमय नित्य सुख उत्पन्न होता है। आत्मीय सुख की प्राप्ति ही तपश्चरण का मुख्य फल है।
॥ इति आराधनाफलम् ॥
उपसंहार छद्मस्थतया यस्मिन् यदि बद्धं किंचिदागमविरुद्धम्।
शोध्यं तद् धीमद्भिर्विशुद्धबुद्ध्या विचार्य पदम् ॥२५१।। अन्वयार्थ - छद्मस्थतया - छद्मस्थ होने से। यस्मिन् - जिस ग्रन्थ में वा इस ग्रन्थ में। यदि - यदि। किंचित् - कुछ। आगमविरुद्धं - आगमविरुद्ध । बद्ध - लिखा हो, निबद्ध किया हो। तत् - वह। पदं - पद का (अक्षरसन्धि, रेफ, अर्थादि का)। विचार्य - विचार करके। विशुद्धबुद्ध्या - विशुद्ध बुद्धि के द्वारा। धीमद्धिः - बुद्धिमानों द्वारा। शोध्यं - शुद्ध करना चाहिए।
__ अर्थ - छदास्थ होने के कारण यदि मैंने इस ग्रन्थ में किंचित् भी आगमविरुद्ध लिखा हो, तो पद, अक्षरादि का विचार करके ज्ञानीजन निर्मल बुद्धि से इसका संशोधन करें अर्थात् मेरी भूल का सुधार करें।