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________________ आराधनासमुच्चयम् ३४० आच्छादित दिशा, दिशादाह, धूमिकापात (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा, जिनमहिमा आदि से रहित समय कालशुद्धि है तथा तीनों संध्याकाल और रात्रि के मध्यकाल में भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए क्योंकि उस मास काल शुद्धि नहीं है। सूर्योदय के ४८ मिनट पूर्व और उदय होने के ४८ मिनट पश्चात् तक, उसी प्रकार सूर्य अस्त के ४८ मिनट होने के पूर्व और पश्चात् ४८ मिनट तक, मध्याह्न काल के ४८ मिनट पूर्व पश्चात् तक स्वाध्याय नहीं करना काल शुद्धि है। आर्तरौद्र ध्यान को छोड़कर शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करते हुए पठन-पाठन करना भाव शुद्धि है। इन पाँच प्रकार की शुद्धि पूर्वक ग्रन्थ पढ़ना ज्ञानशुद्धि है। अर्थ आदि शुद्ध पढ़ना ज्ञान शुद्धि है, जिसका कथन पूर्व में किया है। भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि ये आठ अपहृत संयम शुद्धियाँ हैं। भावशद्धि - कर्म के क्षयोपशम से जन्य मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भाव शुद्धि है। इसके होते आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे स्वच्छ दीवार पर आलेखित चित्र। कायशुद्धि - यह समस्त आवरणों और आभरणों से रहित और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति रूप है। यह मूर्तिमान् प्रशममुख की तरह है। इसके होने पर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरे को। __विनयशुद्धि - अर्हन्त आदि परम गुरुओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखने वाली प्रश्न, स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल; देश, काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करने वाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुष का भूषण है। यह संसार समुद्र से पार उतरने के लिए नौका के समान है। पृथिवीकायिक आदि सम्बन्धी आरम्भादि की प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो निष्ठुर और परपीडाकारी प्रयोगों से रहित हो, व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो वह सर्वतः योग्य हित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्यशुद्धि सभी सम्पदाओं का आश्रय है। अनेक प्रकार के जीवस्थान, योनिस्थान, जीवाश्रय आदि के विशिष्ट ज्ञानपूर्वक प्रयत्न के द्वारा जिसमें जन्तुपीड़ा का बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञानसूर्य प्रकाश और इन्द्रिय प्रकाश से अच्छी तरह
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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