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________________ आराधनासमुच्चयम् ३३४ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । अनन्तानुबंधी के उदय से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती, यह सम्यग्दर्शन की घातक है। यह आत्मा अप्रत्याख्यान के उदय में देशव्रत धारण करने में समर्थ नहीं होता। प्रत्याख्यान कषाय मुनिव्रत की घातक है और संज्वलन यथाख्यात चारित्र की घातक है। इन कषायों के उदय में चारित्र की आराधना नहीं होती है। मन, वचन, काय की अनर्गल या पाप प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं। मन, वचन, काय के भेद से दण्ड तीन प्रकार का है। राग-द्वेष, मोह के भेद से मानसिक दण्ड तीन प्रकार है अर्थात् मन में किसी के प्रति राग (प्रेम) होता है, द्वेष होता है तथा विषयानुराग से मोह उत्पन्न होता है, यह प्राणी विषयों में आसक्त है, अनुरंजित होता है, वह मानसिक मोह नामक दण्ड है। असत्य भाषण, किसी के अंतरंग प्राणों के घातक वचन बोलना, चुगली करना, मर्मभेदी वचन बोलना, किसी के ज्ञान के घातक वचन बोलना, स्वकीय प्रशंसा करना, संतापकारक वचन कहना वाक्दण्ड है। प्राणियों का वध करना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना, परिग्रह का अर्जन करना, आरंभ करना किसी का ताड़न तथा उग्रवेष (भयानक आकृति) धारण करना आदि शारीरिक क्रिया कायदण्ड है। इन तीनों प्रकार के दण्डों का सम्बन्ध परस्पर सापेक्षिक है। धार्मिक-आत्महित के कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होना प्रमाद है। प्रमाद के पन्द्रह, अस्सी तथा साढ़े सैंतीस हजार भेद हैं। चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ; चार विकथा - राजकथा, देशकथा, भोजनकथा और चौरकथा; स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह ये १५ प्रमाद हैं। एक कषाय, एक विकथा और एक इन्द्रिय का विषय एक समय में रहता है। इन चार कषाय, चार विकथा तथा पाँच इन्द्रियों को परस्पर गुणा करने पर प्रमाद के अस्सी भेद होते हैं। कषायों के उत्तर भेद २५ हैं, विकथा भी २५ हैं, पाँच इन्द्रिय और मन ये छह हैं। स्त्यानगृद्धि, निद्रा, निद्रा - निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला ये निद्रा के पाँच भेद हैं और रागद्वेष दो हैं, इनको परस्पर गुणा करने से प्रमाद के साढ़े सैंतीस हजार भेद होते हैं। २५ x २५ - ६२५ ४ ६ = ३७५० ४ ५ = १८७५० x २ = ३७५०० ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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