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आराधनासमुच्चयम् २७९
हैं, दुखों से रहित हैं, सुख रूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने सर्वांग में समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वज्रशिला में उत्कीर्ण प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं, जो सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं हैं।
___ पुरुष के आकार वाले और लोक शिखर पर स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है अर्थात् मोम रहित मूषा के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान पुरुष आकार को धारण करने वाला है। जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक जाकर लोक-शिखर पर सब सिद्ध पृथक्-पृथक् मोम से रहित मूषा के अभ्यन्तर आकाश के सदृश स्थित हो जाते हैं।
अन्तिम भव में जिसका जैसा आकार दीर्घता और बाहल्य लिये हो उसके तृतीय भाग से कम सब सिद्धों की अवगाहना होती है।
वे सिद्ध चरम शरीर से किंचित् ऊन होते हैं और वह किंचित् ऊनता शरीर के अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों की पोलाहट के कारण से है।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के नाश से उनको आठ गुण प्राप्त हुए हैं। जैसे - ज्ञानावरण कर्म का अभाव हो जाने से उन्हें क्षायिक केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है।
दर्शनावरण के क्षय हो जाने से क्षायिक केवल दर्शन प्रगट होता है। वेदनीय कर्म के नाश होने से अव्याबाध, अविनाशी परम सुख की प्राप्ति होती है।
मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। आयुकर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्राप्त होता है जिससे एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्त सिद्ध रह सकते हैं।
नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व) गुण प्रगट होता है। यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्तिक है परन्तु द्रव्य कर्म के सम्बन्ध से वह अनादि काल से मूर्त्तिक बना हुआ है। जन्ममरण के दुःखों को भोग रहा है। जब यह आत्मा अपने पुरुषार्थ से सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी शस्त्र के द्वारा कर्म रूपी शत्रुओं का नाश कर अमूर्तिक हो जाता है तब वास्तव में अमूर्तिक होता है।
गोत्र कर्म के नाश से अगुरुलघुत्व गुण प्रगट होता है। यद्यपि न गुरु (उच्च) है और न लघु (नीच) है तथापि गोत्रकर्म के उदय से ऊँच-नीच होता है। उनके अभाव से अगुरुलघु गुण प्रगट होता है और अन्तराय कर्म के नाश से अनन्तवीर्य रूप गुण प्रगट होता है। इन आठ गुणों से युक्त सिद्ध होते हैं।
आचार्य का स्वरूप शिष्यानुग्रहनिग्रहकुशलाः कुलजातिदेशसंशुद्धाः । षट्त्रिंशद् गुणयुक्तास्तात्कालिकविश्वशास्त्रज्ञाः ॥२१६ ।।