________________
आराधनासमुच्चयम् -२७१
देवगति के भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी के भेद से चार प्रकार हैं। इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक के भेद से देव दस प्रकार के हैं। धर्म ध्यान के प्रभाव से यह आत्मा उत्तम देव पद को प्राप्त करता है और शुक्ल ध्यान की उत्कृष्टता से यह आत्मा शाश्वत सुख के धाम सिद्धगति को प्राप्त होता है।
__ यद्यपि सम्यग्दृष्टि के भी आर्त, रौद्र ध्यान होते हैं, परन्तु वे आर्त, रौद्र ध्यान दुर्गति के कारण नहीं होते। जैसे विषघातक औषधि के समक्ष विष अपना फल नहीं देता है वैसे ही सम्यग्दर्शन के समक्ष आर्त, रौद्र ध्यान दुर्गति के कारण नहीं होते।
शुक्ल ध्यान से यद्यपि सर्वार्थसिद्धि आदि देवों के सुख प्राप्त होते हैं, परन्तु जब शुक्ल ध्यान में उत्कर्षता आती है तब उत्तम, शाश्वत सुख का धाम मोक्षपद प्राप्त होता है। इस प्रकार तपाराधना में कथित १२ प्रकार के तपों में ध्यान नामक अंतरंग तप का कथन पूर्ण हुआ।
युत्सर्ग तप का कथन दुःपरिणामसमुद्भवनिमित्तनि:शेषवस्तुसंत्यागः । व्युत्सर्गः स द्विविधो बाह्याभ्यन्तरजभेदेन ।।२०८।। क्षेत्रादिदशत्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति सदा गद्यः ।
मिथ्यात्वादिचतुर्दशसंत्यागोऽभ्यन्तरोद्भूतः ॥२०९॥ अन्वयार्थ - दुष्परिणाम समुद्भवनिमित्त निःशेष वस्तु संत्यागः - दुष्परिणामों की उत्पत्ति में निमित्तभूत सम्पूर्ण वस्तु का त्याग करना। व्युत्सर्गः - व्युत्सर्ग है। सः - वह व्युत्सर्ग। बाह्याभ्यन्तरजभेदेन - बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से। द्विविधः - दो प्रकार का है।
क्षेत्रादिदशत्याग: - क्षेत्रादि दश प्रकार के परिग्रह का त्याग करना । बाहाः - बाह्य । व्युत्सर्गः - व्युत्सर्ग है। इति - इस प्रकार । सदा - हमेशा। गद्य: - कहा जाता है और। मिथ्यात्वादिचतुर्दशसंगत्यागः - मिथ्यात्वादि चौदह प्रकार के परिग्रह का त्याग करना। अभ्यन्तरोद्भूतः - अभ्यन्तर से उत्पन्न अंतरंग व्युत्सर्ग है।
अर्थ - दुष्परिणामों की उत्पत्ति में निमित्तभूत सम्पूर्ण वस्तु का त्याग करना व्युत्सर्ग है और वह व्युत्सर्ग बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। दुष्परिणामों का त्याग अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है तथा दुष्परिणामों की उत्पत्ति में निमित्तभूत बाह्य वस्तुओं का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। अंतरंग आत्मा से उत्पन्न मिध्यादर्शन, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषाय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद रूप चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग करना, वा दुष्परिणामों का त्याग करना अभ्यंतर व्युत्सर्ग है। इन दुष्परिणामों के निमित्तभूत क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भांड रूप दश प्रकार के परिग्रह का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है।