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आराधनासमुच्चयम् - २६९
अन्वयार्थ - आद्येषु - आदि के। षट्सु - छहों। गुणेषु - गुणस्थानों में। आर्मध्यानं - आर्तध्यान | भवति - होता है। च - और । रौद्रं - रौद्रध्यान ! अपि - भी। आद्येषु - आदि के । पंचसु - पाँच । गुणेषु - गुणस्थानों में होता है। हि - और निश्चय से। धर्म - धर्म ध्यान । असंयतसम्यग्दृष्ट्यादिषु - असंयत सम्यग्दर्शन आदि चतुर्थ गुणस्थान से आदि लेकर । चतुर्यु - चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें इन चार गुणस्थानों में। भवति - होता है।
अर्थ - प्रथम गुणस्थान से लेकर प्रमत्तनामक छठे गुणस्थान तक आर्तध्यान का अस्तित्व है अर्थात् इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, पीड़ाचिंतन और निदान नामक चार आर्तध्यान पंचम गुणस्थान तक रहते हैं और निदान नामक आर्त्तध्यान को छोड़कर शेष तीन ध्यान छठे गुणस्थान तक रहते हैं।
हिंसानन्द, असत्यानंद, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द नामक चारों प्रकार के रौद्र ध्यान प्रथम गुणस्थान से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक रहते हैं। क्योंकि जहाँ पर परिग्रह का सम्बन्ध है, वहाँ तक रौद्रध्यान इस जीव का पिंड नहीं छोड़ता है। जहाँ तक शिष्यों का संयोग - वियोग है, वस्तु में इष्टानिष्ट का विचार है और शरीर के प्रति लक्ष्य है, तब आर्तध्यान पूर्णतया दूर नहीं हो सकते। अत: छठे गुणस्थान तक आर्तध्यान रहता है। छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करते। अत: उनके निदान नामक आतध्यान नहीं है।
धर्म ध्यान का प्रारंभ सम्यग्दर्शन के साथ ही होता है, सम्यग्दर्शन के बिना धर्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और धर्म के स्वरूप के ज्ञान के बिना उसका चिंतन कैसे हो सकता है। अतः धर्म ध्यान का प्रारंभ असंयत सम्यग्दृष्टि रूप चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होकर सप्तम गुणस्थान तक रहता है। सो ही कहा है
तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु ।
शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यदुः ॥२०४*१॥ अन्वयार्थ - तत्त्वज्ञानं - तत्त्वज्ञानं । उदासीनं - उदासीन । शुभाशुभमलाभावात् - शुभ और अशुभ मल के अभाव हो जाने से। विशुद्धं - निर्मल। शुक्लं - शुक्ल ध्यान। अपूर्वकरणादिषु - अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में। अभ्यदुः - कहा है।
अर्थ - अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में तत्त्वज्ञान, उदासीनता, शुभ और अशुभ मल (भावमल) के नाश हो जाने से निर्मल शुक्ल ध्यान होता है।
किन्हीं-किन्हीं आचार्यों के मतानुसार धर्मध्यान दसवें गुणस्थान तक होता है। ११, १२, १३, १४ गुणस्थान में क्रमश: शुक्ल ध्यान होता है। पूज्यपाद, अकलंक देव आदि ने श्रेणी आरोहण के पूर्व धर्मध्यान माना है और पश्चात् शुक्ल ध्यान माना है। अर्थात् आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान होता है। बारहवें गुणस्थान में एकत्ववितर्कावीचार, तेरहवें गुणस्थान में तृतीय सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और चौदहवें गुणस्थान में समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान होता है। इस