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आराधनासमुच्चयम् २५१
देव अपने कल्पों में ले जाते हैं। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पों के देवों के पास जाते हैं।
___ आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं तथा अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तर दिशा के देवों की सुन्दर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थान पर जाती हैं। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रम से ६००,००० और ४००,००० बतायी है अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान हैं।
यद्यपि स्वर्ग में सांसारिक सुखों की उत्कृष्टता है, अनेक प्रकार की ऋद्धियों की संभावना है, परन्तु वहाँ पर भी शाश्वत सुख वा निराकुलता नहीं है। इस प्रकार इन तीनों लोकों में सुख और शांति नहीं है। शुद्ध और अशुद्ध चारित्र का पालन कर नाना भेद वाले उच्च नीच निलयों में (चार प्रकार के देवों में) उत्पन्न होकर देवगण सुख का अनुभव करके भी दुःख का ही अनुभव करते हैं अर्थात् मानसिक दुःखों से पीड़ित रहते हैं। इस संसार में कहीं पर सुख नहीं है। पाप-पुण्य रूप सर्वकर्मों का नाश कर यह प्राणी ऊर्ध्व लोक के ऊपर मनुष्य लोक प्रमाण (४५ लाख योजन प्रमाण) श्वेत छत्र के समान सिद्धशिला पर स्थित सिद्ध भूमि में स्वात्मा से उत्पन्न अनन्त सुख भोगते हैं। इस प्रकार चिंतन करना लोक भावना है। इसके चिंतन करने से संसार से भय उत्पन्न होता है। अतः तप आराधना में ध्यान रूप अंतरंग तप में भावनाओं का कथन किया
अशुचि भावना अशुचितमशुक्रशोणित-संभूतं छर्दितानसंवृद्धम् ।
दोषमलधातुनिलयः कथं शरीरं वद शुचीदम् ।।१६७॥ अन्वयार्थ - अशुचितमशुक्रशोणितसंभूतं - अशुचितम वीर्य और रज से उत्पन्न | छर्दितान्नसंवृद्धं - वमन किये हुए अन्न से संवर्धित । दोषमलधातुनिलय: - दोष, मल और धातु का स्थान ऐसा । इदं - यह । शरीरं - शरीर | वद - कहो। शुचि - पवित्र । कथं - कैसे हो सकता है।
अर्थ - पिता के अशुचितम (अत्यंत अपवित्र) वीर्य और माता के रक्त से यह शरीर उत्पन्न होता है। माता जो कुछ खाती है, पीती है उसका रस भाग बनता है, उससे इस शरीर की वृद्धि होती है। अतः माता के द्वारा चर्वित अन्न से वृद्धि होने से इसको छर्दित अन्न से संवर्धित कहा गया है।
यह शरीर रोग, मल, मूत्र तथा सप्त धातु का स्थान है। मलमूत्र का खजाना है, ऐसा शरीर पवित्र एवं पावन कैसे हो सकता है!
सो ही दो श्लोकों में कहा है
रसाद् रक्तं ततो मांसं, मांसान्मेदः प्रवर्तते। मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जाशुक्रं तत: प्रजाः॥१६७*१.२॥